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११० विश्वतत्त्वप्रकाशः
[३८भयेन हेतोयभिचारात्। कथम्। तस्योत्पत्तिमावेऽपि प्रकृतिपरिणामत्वाभावात् । ननु शानं प्रकृतिपरिणामः अनुभवान्यत्वे सत्युत्पत्तिमस्वात् पटादिवदिति चेत्र । शानस्यानुभवान्यत्वासिद्धेः। तथा हि। शानमनुभवादन्य न भवति चेतनत्वात् व्यतिरेके पटादिवदिति । अथ शानस्य चे नित्वमसिद्धनिति चेन्न। शानं चेतनम् अजडत्वात् स्वप्रतिबद्धव्यवहारे संशयादिव्युदासाय परानपेक्षत्वात् अर्थावबोधरूपत्वात् व्यतिरेके पटादेव' इति ज्ञानस्य चेतनत्वसि द्वेः। ननु शानं स्वसंवेद्य न भवति प्रकृतिविकृतित्वात् रूपादिवदिति चेन्न । ज्ञानस्य प्रकृतिविकृतित्वा. भावात् । कथं ज्ञानं न प्रकृतिविकृतिः चेतनत्वात् अजड वात् स्वप्रतिबद्धव्यवहारे संशगादिशुदासार परानपेक्षत्वात् अनुभववदिति। रूपादेरपि प्रतेक त्यानावात् साधन विकलो दृष्टान्तश्च । कुतस्तेषामहंकारजन्यत्वनिराकरणात् पञ्चबूत जनकत्वनिराकरणाच्च । तस्मात् शानं स्वसंवेद्य स्वसंवेद्य नहीं है यह कहना उचित नही । ज्ञान को प्रकृति का परिणाम मानना ठीक नही। ज्ञान उत्पत्तियुक्त है अतः प्रकृति का परिणाम है यह कथन याग्य नही - सांख्य मत में अनुभव को उत्पत्तियुक्त तो माना है, किन्तु प्रकृति का परिणाम नही माना है। ज्ञान और अनुभव भिन्न नहीं हैं अतः ज्ञान को भी प्रकृति का परिणाम नही माना जा सकता । ज्ञान और अनुभव एकही है - वह चेतन है तथा उस के विषय के संशय को वही दूर कर सकता है । इसी प्रकार रूप आदि के समान ज्ञान को प्रकृति का विकार भी नही माना जा सकता क्यों कि वह चेतन है। दूसरे, रूप आदि भी प्रकृति के विकार-अहंकार से उत्पन्न या पंच महाभूतों के जनक नही हैं यह हम आगे स्पष्ट करेंगे। अतः ज्ञान के स्वसंवेद्य होने में सांख्यों की आपत्ति युक्त नही है।
१ सांख्यमते अनुभव उत्पत्ति मानस्तिपरंतु प्रकृतिपरिणामो नास्ति । २ यच्चेतनं न भवति तदजडं न भवति यथा पटादि। ३ रू॥दोनां पहिां ततो इंकारः तस्मात् गुणध षोडशकः षोडशात् पञ्चभ्यः पन्च भूतानि इत्युक्तत्वात् तच्च निराकरणम् अग्रे प्रतिपादितमस्ति ।