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वेदप्रामाण्यनिषेधः
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अथ यागविशेषे विहितत्वात् तद्ब्राह्मणवधोऽपि पुण्यहेतुरेव न तु पापहेतुरिति चेन्न । क्रत्वन्तःपातिनी हिंसा पापहेतुः वक्त्वात् प्रसिद्धब्रह्महत्यादिवदिति प्रमाणेन बाधितत्वात् । ननु पापहेतुत्वे निषिद्धत्वमुपाधिरिति चेन्न । तस्य उपाधिलक्षणाभावात् । कुतः साध्यसमव्याप्तेरभावात् । कथं यो यः पापहेतुः स सर्वोऽपि निषिद्ध इत्युक्ते ' श्येनेनाभिचरन् ' यजेत' इत्यादिविधिना व्यभिचारात् । अथ निषेधातिक्रान्तविषयत्वेन श्येनयागस्य निषिद्धत्वमिति चेन्न । परेषामभिचारं कामयमानः श्येनयागेन यजेतेत्यादिना पापहेतोरपि काम्यानुष्ठानत्वेन विहितत्वात् । ततो निषिद्धत्वस्य साध्यव्यापकत्वाभावादनुपाधित्वम् । कथम् । यद्यनिषिद्धं भवति तत्पापहेतुर्भवति इत्युक्ते श्येनयागेन' व्यभिचारात् । किं च । सर्वस्योपाधेर्यथोक्तलक्षणलक्षितत्वेपि दूषणाभासत्वमेव न तु सदूषणत्वम् । तस्योत्कर्षापकर्षसमजातित्वात् । तथा हि । प्रसिद्धायां हिंसायां पापहेतुत्वं
विशिष्ट यज्ञों में ब्राह्मण आदि का वध भी पापका कारण न हो कर पुण्य का कारण होता है यह कथन भी युक्त नही । प्राणिवध यज्ञ में हो या अन्यत्र हो - वह पाप का ही कारण होता है । मीमांसकों के कथनानुसार सभी वध पापकारण नही होते - जिन का शास्त्रों में निषेध है चे ही वध पापकारण होते हैं । किन्तु यह कथन ठीक नही है । वैदिक ग्रन्थों में पापकारण वध का भी विधान मिलता है, उदाहरणार्थ - अभिचार से शत्रु का वध करने के लिये श्येन के यज्ञ का विधान है । यहां श्येन का वध पापकारण होते हुए भी विहित है - निषिद्ध नही । अतः जो निषिद्ध हैं वे ही वध पापकारण हैं यह कहना सम्भव नही है । दूसरी बात यह है कि किसी अनुमान में इस प्रकार उपाधि बतला कर दोष निकालना योग्य नही - यह दूषणाभास होता है जिस का अन्तर्भात्र उत्कर्षसम, अपकर्षसम या संशयसम जाति में होता है ( इस दूषण का तान्त्रिक विवरण मूल में देखने योग्य है ) ।
१ शत्रुमन्त्रविधिना वधं कुर्वन् अथवा मन्त्रविधिना मरणान्तिकहोमं कुर्वन् । २ निषिद्धत्वमात्रम् अत्रोपाधिः । ३ शत्रूणाम् । ४ पापहेतुः साध्यम् । ५ श्येनयागस्तु पापहेतुर्भवति परंतु निषिद्धो नास्ति ।