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वेदप्रामाण्यनिषेधः दवस्थाद्वया'संभवेन तत् प्रतिपादकवाक्ययोर्बाध्यबाधकभावः सिद्धः। अपि च । 'तरति शोकं तरति पाप्मानं तरति ब्रह्महत्यां योऽश्वमेधेन यजते य उ चैनमेवं वेदर' इत्यत्र द्वात्रिंशत्कोटिवित्तव्ययेन वर्षशतबहुतरशरीरायासेन प्रसाध्याश्वमेधफलस्य वाक्यार्थपरिक्षानमात्रात् संभव प्रतिपादनाच्च बाधितं तत् । ननु न बाध्यं तत् वेदार्थपरिशानस्य ततो प्यधिकफलोपभोगसंभवात् । तथा हि ।
स्थाणुरयं भारहारः किलाभूदधीत्य वेदं न विजानाति योऽर्थम् । अर्थज्ञ इत् सकलं भद्रमश्नुते नाकमेति ज्ञानविधूतपाप्मा ॥
.. (निरुक्त १-१८) इति निरुक्ते इति चेन्न । वेदार्थक्षस्य ब्रह्महत्याद्युपनिपाते प्रायश्चित्ताभावप्रसंगात् । तथैवास्तीति चेन्न । अश्वत्थामादेब्रह्महत्याशङ्कोमात्रेऽपि माहा. प्रायश्चित्तप्रदानात् । अथ तस्य वेदार्थपरिज्ञानाभावात् प्रायश्चित्तप्रदानमिति समान कहा है जो असम्भव है । वेद के ज्ञान की महिमा निरुक्त में भी कही है - 'जो वेद को कण्ठस्थ करता है किन्तु उसका अर्थ नही जानता वह सिर्फ बोझा ढोनेवाला खम्भे के समान जड है, जो अर्थ जानता है वह सब मंगल प्राप्त करता है तथा ज्ञान से पाप को दूर कर स्वर्ग प्राप्त करता है।' किन्तु ब्रह्महत्या से छुटकारा मिलने की बात यदि सही हो तो वेद जाननेवालेको ब्रह्महत्या का कोई प्रायश्चित्त जरूरी नही होगा । इस के विरुद्ध वैदिक ग्रन्थों में कहा है कि अश्वत्थामा को ब्रह्महत्या की सिर्फ शंका होने पर भी बडा प्रायश्चित्त दिया गया। अश्वत्थामा रुद्र का अवतार कहा गया है अतः वह वेद जानता होगा इसमें सन्देह नही – उसे भी ब्रह्महत्या की शंका का प्रायश्चित्त दिया गया इस से स्पष्ट होता है कि वेद के ज्ञान से पाप दूर नहीं होते। यहां मीमांसक उत्तर देते हैं कि यज्ञ के जानने से यह फल प्राप्त होता है यह कथन अर्थवाद है - प्रशंसा के लिए कहा है,
__ १ मुक्तावस्था शरीरावस्था च । २ यः अश्वमेधेन यजते यः उ चैनमश्वमेधं वेद जानाति स शोकं तरति इति संबन्धः। ३ अश्वमेधफलस्य संभवस्तस्य प्रतिपादनात् । ४ तरति शोकमित्यादि । ५ अश्वमेधात् । ६ वेदं पठित्वा। वि.त.७