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वेदप्रामाण्यनिषेधः
तथा पौरुषेयाः वेदाः अनुष्टुबादिछन्दोनिबद्धत्वात् पदसंदर्भत्वाच्च भारतादिवदिति च ।
[ ३३. शब्द नित्यत्वनिषेधः । ]
अथ शब्दानां नित्यत्वात् तत्संदर्भस्य वेदस्यापि नित्यत्वेनापौरुषेयत्वम् । तथा हि । नित्यः शब्दः श्रावणत्वात् शब्दवदिति चेन्न । उदात्तानुनासिकादिध्वनिधमैर्हेतोर्व्यभिचारात् । तेषां श्रावणत्वेऽपि नित्यत्वाभावात् । अथ नित्यः शब्दः प्रत्यभिज्ञायमानत्वात् आकाशवदिति चेन्न । करणाङ्गहारादिभिर्हेतोर्व्यभिचारात् । तत्र स एवायमङ्गहार इति प्रत्यभिज्ञायमानत्वेऽपि नित्यत्वाभावात् । अथ अङ्गहारादिष्वनित्येषु एकत्वप्रत्यभिज्ञानं भ्रान्तं', नित्ये शब्दे त्वभ्रान्तं भ्रान्तेनाभ्रान्तस्य व्यभिचारो न युक्त इति चेत् । तर्हि शब्दस्य नित्यत्वं केन निश्चीयते अनेनानुमानेन र अन्येन वा । अनेन चेदितरेतराश्रयः । शब्दस्य नित्यत्वसिद्धौ तत्र प्रत्यभिज्ञानस्यानिबद्ध हैं तथा शब्दो के समूह हैं अतः महाभारत आदि के समान वेद भी पुरुषकृत ही सिद्ध होते हैं ।
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३३. शब्द के नित्यत्वक निषेध-शब्द नित्य हैं अतः शब्दसमूहरूप वेद भी नित्य है - यह मीमांसकों का एक कथन है । यह कथन शब्द के नित्य होने पर आधारित है अतः उस का विचार करते हैं । शब्द सुना जाता है अतः नित्य है यह अनुमान ठीक नहीं क्यों कि उदात्त, अनुनासिक आदि ध्वनि भी सुने जाते हैं किन्तु वे नित्य नही हैं। आकाश के समान शब्द का भी प्रत्यभिज्ञान होता. " यह वही आकाश है' इस ज्ञान के समान यह वही शब्द है ' ऐसा ज्ञान होता है - अतः शब्द नित्य है यह अनुमान भी ठीक नही । शरीर की विशिष्ट हलचलें - नृत्य की मुद्राएं आदि - दुहराई जाती हैं तब उन में भी प्रत्यभिज्ञान होता है - यह वही मुद्रा है' ऐसा ज्ञान होता है किन्तु ये मुद्राएं नित्य नहीं होतीं । मुद्राएं अनित्य हैं अतः उन में प्रत्यभिज्ञान भ्रमजनित है किन्तु शब्द के विषय में प्रत्यभिज्ञान भ्रमरहित है क्यों कि शब्द नित्य है - यह मीमांसकों का कथन है । किन्तु शब्द नित्य है या नही यही जब वाद का विषय है
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१ करण ६४ अङ्गहारोङ्गविक्षेपः । २ स एवायम् इति न घटते किं तु तादृशोयम् इति घटते । ३ नित्यः शब्दः प्रत्यभिज्ञायमानत्वात् इति ।