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वेदप्रामाण्यनिषेधः
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इति उभयपक्षेऽपि मीमांसकानां दोषसद्भावाददृष्टस्य मानान्तरगोचरत्वं लिङादीनामदृष्टादन्यवाचकत्वं च स्वीकर्तव्यम् । तथा च ' तस्मात् तपस्तेपानाच्चतुरो वेदा अजायन्त इति प्रमाणभूतादागमाद् वेदस्य सकर्तृकत्वसिद्धेः कर्तुरुपलम्भकप्रमाणरहितत्वादित्यसिद्धो हेत्वाभासः ।
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अथ कार्यान्वयरहितवाक्यानां' प्रमितिजनकत्वाभावात् प्रमाणभूतत्वं नास्तीति चेन्न । प्रमितिजनकत्वसद्भावात् । तथा हि । तद्वाक्यश्रवणाद् व्युत्पन्नानां क्वचिदर्थे प्रतीतिर्जायते न वा । न जायते इति वक्तुं नोचितम् । शब्दशब्दार्थवेदिनामन्वितार्थसुशब्दसंदर्भश्रवणादर्थप्रतीतिजनन नियमात् । अथ प्रतीतिर्जायते तत्प्रमाणं न भवत्यप्रमाणमेव तत्प्रतीतेः स्मरणरूपत्वादिति चेन्न । स्मरणस्यानुभव जनितसंस्कारजत्वात् प्राक्तनप्रमया प्रमितत्वेन वेदकर्तुरनुभवसिद्धिप्रसंगात् । तथा च कर्तुरुपलम्भकप्रमाणरहितत्वादित्यसिद्ध हेतुः । अथ तदनुभवजनितसंस्कारजं स्मरणं न भवत्या
आगम से भिन्न प्रमाण का विषय मानते हैं तो वह अपूर्व विषय नही रहेगा । किन्तु अन्य प्रमाणों से अदृष्ट का ज्ञान नही होता यह मानें तो शब्दों द्वारा उस का वर्णन सम्भव नही होगा ।' अतः वेद प्रतिपादित विषयों का ज्ञान अन्य प्रमाणों से भी होता है तथा वेद के क्रियापद अदृष्ट से भिन्न अन्य पदार्थों का भी वर्णन करते हैं यह स्वीकार करना चाहिए | तदनुसार ' प्रजापति से वेद उत्पन्न हुए ' इस वेद वाक्य से ही वेद के कर्ता का अस्तित्व स्पष्ट होता है ।
कार्य विषय से रहित वाक्य प्रमिति को उत्पन्न नही करते अतः वे वाक्य प्रमाण नही होते यह मीमांसकों का कथन है । किन्तु यह उचित नही । कार्य विषय से रहित वाक्य सुन कर अर्थ की प्रतीति तो होती ही है । फिर प्रमिति उत्पन्न नही होती यह कैसे कह सकते हैं ? यहां मीमांसकों का उत्तर है कि कार्यविषय से रहित वाक्य से अर्थ तो प्रतीत होता है किन्तु वह प्रतीति स्मरणरूप है अतः प्रमाण नही है । किन्तु यह उत्तर भी मीमांसकों को अन्ततः प्रतिकूल ही सिद्ध होता है । उन के कथनानुसार ' प्रजापति से वेद उत्पन्न हुए ' इस प्रस्तुत वाक्य को
१ सिद्धार्थं ।