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विश्वतत्त्वप्रकाशः
[ २८
[ २८. वेदस्यापौरुषेयत्वनिरासः । ]
यदप्यनूद्य प्रत्यवोचत्'-: १ - अथ सर्वज्ञप्रणीतागमाभावेऽपि अपौरुषेयागसद्भावात् स एव जीवस्यानाद्यनन्तत्वमावेदयतीति चेन्न, आगमस्यापोरुपेयत्वाभावात्, तथा हि वेदवाक्यानि पौरुषेयाणि वाक्यत्वात् कादम्बरीवाक्यवदिति, तत् तथैव । आगमस्य सर्वशप्रणीतत्वेन पौरुषेयत्वाभ्युपगमात् ।
अथापौरुषेयो वेदः अनवच्छिन्न संप्रदायत्वे सत्यस्मर्यमाणकर्तृकत्वात् आकाशवदित्य पौरुषेयत्वसिद्धिरिति चेन्न । हेतोर्विशेष्यासिद्धत्वात् । तथा हि । अस्मर्यमाणकर्तृकत्वं वादिनः प्रतिवादिनः सर्वस्य वा । वादिनश्चेत् कर्तुरनुपलब्धेरभावाद" वा । आद्यपक्षे पिटकत्रयेऽपि वादिनः कर्तुरनुपलब्धेरस्मर्यमाणकर्तृकत्वसद्भावेना पौरुषेयत्वात् तस्यापि प्रामाण्यं प्रसज्यते । ततस्तदुक्तानुष्ठानेऽपि मीमांसकाः प्रवर्तेरन् । अथ
२८. वेदके अपौरुषेयत्वका निरास - कादम्बरी आदि के वाक्यों के समान सभी वाक्य पुरुषकृत होते हैं अतः वेदवाक्य भी पुरुषकृत हैं यह चार्वाकों का अनुमान जैन दार्शनिकों को भी मान्य है । जैनदर्शन को मान्य आगम सर्वज्ञप्रणीत हैं अतः वे पुरुषकृत ही हैं । वेद के अपौरुषेय होने में मीमांसकों द्वारा प्रस्तुत किया गया अनुमान इस प्रकार हैं - वेद के अध्ययन की परम्परा अविच्छिन्न है किन्तु उस के कर्ता कौन हैं इस का किसी को स्मरण नही है अतः आकाश आदि के समान वेद का भी कोई कर्ता नही है (यदि कोई कर्ता होता तो किसी को उस का स्मरण होता ) । किन्तु यह अनुमान सदोष है । कर्ता का स्मरण नही है अतः कर्ता ही नही हैं यह कथन ठीक नही । उदाहरणार्थ, मीमांसकों को इस का स्मरण नहीं है कि पिटकत्रय के कर्ता कौन थे। फिर पिटकत्रय को भी अपांरुषेय और प्रमाणभूत क्यों नही माना जाता ? यदि कहें कि बौद्ध लोग पिटकत्रय
१ चावको वदति । २ अस्मर्यमाणकर्तृत्वं विशेष्यम् । ३ मोमांसकस्य । ४ बौद्धादेः। ५ उभयवादिप्रतिवादिनोर्वा । ६ अस्मर्यमाणकर्तृत्वम् । ७ केवलमभावाद् वा अस्मर्य
१० पिटकत्रये वेदेऽपि
- ८ पटकस्यापि । ९ पिटकत्रये : अस्मर्यमाणकर्तृत्वं समानम् । ११ मीमांसकः ।