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विश्वतत्त्वप्रकाशः
[ २७प्रत्यक्षतो जानतः स्वस्यैव सर्वज्ञत्वेन देशकाळयोः सर्वक्षसहितत्वात् सर्वक्षरहिताविति साध्यस्याभावः प्रत्यक्षेण निश्चीयते इति कालात्ययापदिष्टो हेतुः स्यात् । द्वितीयपक्षे धर्मिणः प्रमाणसिद्धत्वाभावात् आश्रयासिद्धो हेत्वाभासः। मीमांसकानामप्यत्रायमेव दोष उद्भाव्यते । प्रत्यक्षेण धर्मिग्रहणे तद्दोषस्य समानत्वात् । अथ अनुमानेन धर्मो गृह्यत इति चेत् प्रकृतानुमानेन अनुमानान्तरेण वा । प्रकृतानुमानेन चेदितरेतराश्रयदोषः । कुतः । अनुमानस्य सिद्धौ धर्मिणः सिद्धिः धर्मिसिद्धौ अनुमानसिद्धिरिति । अनुमानान्तरेण चेदनवस्था तस्याप्यनुमानान्तरेण धर्मिसिद्धिस्तस्याप्यनुमानान्तरेण धर्मिसिद्धिरिति । अथ आगमाद् धर्मिसिद्धि रिति चेन्न । आगमस्य मीमांसकैः कार्यार्थ प्रामाण्याङ्गीकारेण देशकालादिसिद्धार्थप्रतिपादने प्रामाण्यानभ्युपगमात् । अथ दृष्टदृश्यमानसारश्यनिबन्धनं नोपमानमपि सकलदेशकालग्रहणसमर्थम् । तथा नापत्ति.
मीमांसकों ने सर्वज्ञ के अभाव में जो युक्तियां दी हैं वे भी इसी प्रकार सदोष हैं। सभी देशों तथा कालों का ज्ञान उन्हें प्रत्यक्ष से नही हो सकता। अनुमान से भी यह ज्ञान सम्भव नही। मीमांसक आगम प्रमाण को सिर्फ कार्य के विषय में प्रमाण मानते हैं अतः आगम से देश-काल जैसे सिद्ध पदार्थों का ज्ञान उन्हें नही हो सकता। उपमान प्रमाण से भी समस्त देश कालों का ज्ञान सम्भव नही क्यों कि उपमान में देखे हुए तथा दिखाई दे रहे ऐसे दो पदार्थों की तुलना आवश्यक है जो प्रस्तत में सम्भव नही है । समस्त देश काल सर्वज्ञरहित हुए विना अमुक बात की उपपत्ति नही लगती यह भी नही कहा जा सकता अतः अर्थापत्ति प्रमाण भी इस विषय में उपयोगी नही है। समस्त देशों तथा कालों का ज्ञान अभाव प्रमाण से भी नही होता क्यों कि ऐसा ज्ञान भावरूप होना चाहिए तथा भावरूप पदार्थो का ज्ञान अभाव प्रमाण से होना सम्भव नही। समस्त देश कालों का यह ज्ञान दूसरों के कहने
१ यदि अप्रमाणसिद्धो धर्मा । २ प्रत्यक्षेण धर्मिग्रहणे स्वस्थैव सर्वज्ञत्वेन देशकालयोः सर्वज्ञसहितत्वात् इत्यादिदोषस्य समानत्वात् । ३ मीमांसकः। ४ वीतौ देशकालौ सर्वज्ञ रहितौ । ५ वीतौ देशकालौ सर्वज्ञरहितौ देशकालत्वात् एतद्देशकालवदिति प्रकृतानुमानम् । ६ वीतौ देशकालौ इति धर्मी । ७ यज्ञादि । ८ कारणम् । ९ धर्मिग्राहकं न।