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विश्वतत्त्वप्रकाशः
[२८दिनः, अमिद्धत्वात् । कुतः वेदे प्रतिवादिभिरष्टकादिकर्तुः स्मरणात् । अथ परेषामष्टकाद्यनेककर्तृविप्रतिपत्या वेदे कर्तुरभाव एवेति चेन । कर्तृमात्रे वि प्रतिपत्त्यभावात् । तन्नामविशेषे विप्रतिपत्तिः । ततो न प्रतिवादिनो अस्मर्यमाणकर्तृकत्वं हेतुः । नापि. सर्वस्य । अमीमांसकैः सर्वैस्तब कर्तुः स्मरणात् ।
अथ तत्स्मरणस्या'नुभवजनितसंस्कारजत्वात् वेदे कर्ता केन प्रमाणेनानुभूतो यतः स्मर्यत इति चेत् वृद्धोपदेशात् वाक्यत्वादनुमानाच्चेति ब्रमः । किं च त्रिकालत्रिलोकोदरवर्तिसर्वात्मचेतोवृत्ति विशेषविज्ञानरहितो मीमांसकः कथं वेदे सर्वेषां कर्तृस्मरणाभावं निश्चिनुयात् । तथा जानतः स्वस्यैव सर्वशत्वेनागमकर्तृत्वप्रसंगात् । अर्थ
वेदस्याध्ययनं सर्व गुवेध्ययनपूर्वकम् । वेदाध्ययनवाच्यत्वादधुनाध्ययन यथा ॥
( मीमांसाश्लोकवार्तिक पृ. ९४९ ) कथन भी ठीक नही – बौद्धों को स्मरण है कि वेद के कर्ता अष्टक आदि ऋषि हैं। इस पर आक्षेप करते हैं कि प्रतिपक्षियों में वेदके कर्ता के बारे में एकमत नही है अतः उन के कथन विश्वसनीय नही हैं। किन्तु प्रतिपक्षियों में वेदके कर्ता के नाम के बारेमें मतभेद होने पर भी 'वेद का कोई कर्ता था' इस विषय में एकमत है। अतः वेद के कर्ता का स्मरण ही नही है यह कहना उचित नही।
मीमांसकों का एक आक्षेप यह है कि जिसे एक बार किसी चीज का अनुभव हुआ है उसे ही उस का स्मरण हो सकता है। प्रतिवादी को वेद-कर्ता का अनुभव नही हुआ है अतः स्मरण भी नही हो सकता। उत्तर यह है कि प्रत्यक्ष अनुभव न होने पर भी वृद्धों के उपदेश से वेद-कर्ता का स्मरण हो सकता है। तथा वाक्य पुरुषकृत होते हैं इस अनुमान से भी वेद के कर्ता का अनुमान हो सकता है। दूसरे, सभी प्रदेशों में सभी समयों में सभी पुरुषों को वेद-कर्ता की स्मृति नही है इसका ज्ञान मीमांसकों को कैसे हुआ ? यदि ऐसा ज्ञान हो सकता है तब तो मीमांसक सर्वज्ञ ही सिद्ध होंगे।
१ वेदकर्तुः स्मरणस्य । २ वेदकर्तृस्मरणं तु अनुभवसंस्कारजं भवति तर्हि वेदकर्तुः स्मरणस्य अनुभवः केन प्रमाणेन । ३ वयं जैनाः। ४ मीमांसकः वेदस्यापौरुषेयत्वस्थापनार्थ श्लोकं प्राह ।