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विश्वतत्त्वप्रकाशः
[२५अदृश्यमात्रसमवायिभिरारब्ध इत्यभिप्रायः परमाणुभिरारब्ध इति वा । न तावदाद्यः पक्षः सिद्धसाध्यत्वेन हेतोरकिंचित्करत्वात् । कथम् । तनुकरण संतानस्य समवायिकारणरूपत्वेनोपात्तशुक्रशोणितादीनामदृश्यत्वेन तनुकरणसंतानस्य : दृश्यसंतानशन्यै समवायिभिरारब्धत्वाङ्गीकारात्। न द्वितीयः पक्षोऽपि। दृष्टान्तस्य साध्यविकलत्वात् । आरणेयाग्निसंताने व्यणुकादिभिरारब्धत्वसंभवेन परमाणुभिरारब्धत्वाभावात् । तत् कथम्। आरणेयाग्निर्न परमाणुभिरारब्धः अव्यणुकत्वात् अस्मदादि बाहन्द्रियग्राह्यत्वात् पटादिवदिति। घटादिसंतानेन व्यभिचाराच्च। तेषां दृश्यसंतानैर्मृपिण्डशिवकादिसमवायिभिरारब्धत्वात् । अथ तेषामपि पक्षीकरणान्न व्यभिचार इति चेत् तर्हि प्रत्यक्षेण पक्षेर साध्याभावस्य निश्चितत्वात् कालात्ययापदिष्टो हेतुः स्यात् । तस्माद वीतानि नराश्वादिशरीराणि पूर्वनराश्वादिशरीरजानि गर्भजसंतानशरीरत्वात् संप्रतिपन्नपृथ्वी अनिन्य ही है यह कहना योग्य नही । इस अनुमान का उदाहरण भी दोषयुक्त है क्यों कि दीपक के प्रारम्भ में परमाणु स्वतन्त्र नही होते (- बत्ती, तेल, अग्नि के स्कन्ध रूप में ही होते हैं)।
जैसे अरण्य में अग्नि किसी दृश्य कारण के विना ही भडकती है वैसे इस विश्व की परम्परा भी किसी दृश्य कारण के विना ही (प्रलयास्थिति से ) शुरू हुई है यह कहना भी ठीक नही। इस में एक दोष तो यह है कि कारण दृश्य न हो तो अदृश्य भी हो सकता है, जैसे कि शरीर का उत्पत्तिकारण वीर्य तथा रज अदृश्य स्थिति में होता है। किन्तु इसका तात्पर्य यह नही कि शरीर (प्रलयस्थिति से -) कारणरहित उत्पन्न होता है। दूसरे, यहां उदाहरण भी दोषयक्त है क्यों कि अरण्य में अग्नि परमाणुओं से आरम्भ नही होता। न्यायदर्शन के ही मतानुसार परमाणुओं से पहले द्वयणुक बनते हैं और वे बाह्य इन्द्रियों से ग्राह्य नही होते । अग्नि बाह्य इन्द्रियों से ग्राह्य है अतः वह परमाणओं से आरम्भ नही हुआ है। तीसरा दोष यह भी है कि जगत में घट आदि बहुतसे पदार्थों का कारण दृश्य होता है। अतः विश्व के पदार्थों का दृश्य कारण नही होता यह कहना प्रत्यक्ष से ही बाधित है। इस
१ द्वयणुकत्र्यणुकादिभिः भारब्धत्वात् । २ घटादौ ।