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विश्वतत्त्वप्रकाशः
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मानत्वेन कदाचिन्न वर्तत इत्येतत्साध्याभावात्। द्वितीयपक्षे अपसिद्धान्तः। षण्णा माश्रितत्वमन्यत्र नित्यद्रव्येभ्यः' (प्रशस्तपादभाष्य पृ. १६.) इति स्वसिद्धान्तत्वात् । अश्वत्वस्य निराश्रयावस्थानाभावात् साध्यविकलो दृष्टान्तश्च । किं च गोत्वादेर्निराश्रयावस्थाङ्गीकारे द्रव्यत्वं प्रसज्यते । गोत्वादिकं नित्यद्रव्यम् अनाश्रितत्वेनावस्थितत्वात् आकाशचदिति। तस्मात् गोत्वादिकं स्वव्यक्तिषु सर्वदा वर्तते जातित्वात् द्रव्यत्ववदिति गजगवाश्वादिव्यक्तीनां सर्वदा सत्त्वसिद्धिः।
अथ पृथिव्याद्यारम्भकपरमाणवः कदाचित् स्वातन्त्र्यभाजः परमाणुत्वात् प्रदीपारम्भकपरमाणुवदिति अनेन सकलप्रध्वंसो भविष्यतीति चेन्न । सिद्धसाध्यत्वेन हेतोरकिंचित्करत्वात् । कथमिति चेत् तनुकरणभुवनादिषु स्वतन्त्रपूर्वपरमाणूनां प्रवेशस्य ततो निर्गतपरमाणूनां ही रहती वही प्रलयकाल है । ) यह अनुमान भी दोषयुक्त है। एक तो गोत्र जाति गो-व्यक्तियों को छोडकर रह नही सकती – यदि गोत्व जाति अश्व आदि अन्य व्यक्तियों में रहे तो अश्वत्व और गोत्व में अन्तर नही रहेगा। दूसरे, इस अनुमान का उदाहरण भी दोषयुक्त है – क्यों कि अश्वत्र गायों में किसी भी समय विद्यमान नही रहता किन्तु अश्वों में सर्वदा विद्य न रहता है। यहां उदाहरण एसा चाहिए था जिस में एक जाति अपनेही व्यक्ति में किसी समय विद्यमान रहती है और अन्य समय विद्यमान नही रहती। किन्तु ऐसा उदाहरण सम्भव नही है। तथा गो-व्यक्ति के आश्रय के विना ही गोत्व-जाति रहती है यह मानना भी न्यायदर्शन के मत के विरुद्ध होगा- 'नित्य द्रव्यों को छोडकर छहों पदार्थ आश्रित होते हैं । ऐसा उन का मत है । अतः वे गोत्व-जाति का विना आश्रय के रहना नही मान सकते।
इस अनुमान की उदाहरण अश्वत्व जाति भी आश्रयरहित नही पाई जाती । यदि जाति को आश्रयरहित मानें तो उपर्युक्त सिद्धान्तानुसार
१ द्रव्यगुणकर्मादि। २ विना नित्यद्र-यरहतेभ्यः ३ गोत्वं सामान्यं न तु द्रव्यत्वम् । ४ सामान्यत्वात् । ५ गोत्वं गोव्यक्तावेव अश्वत्वम् अश्वजातावेव इति सर्वदा सत्त्वसिद्धिरेव । ६ कदाचित् स्वातंत्र्यभाज इत्युक्ते कदाचित् केनापि क्रियन्ते इति समायातम् । ७ प्रदीपारम्भकाः परमाणवः के वर्तिकातैलभाजवादयः । ८ तन्वाः ।