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ईश्वरनिरासः
स्वातन्त्र्यभाक्त्वस्य चास्माभिरप्यभ्युपगमात् वैतालीहदे,जलप्रवेशनिर्गमवत् । एवं चेद् भूभुवनादीनामनित्यत्वेन जैनानामपसिद्धान्त इति चेन्न।
प्रविशदगलता व्यूहे देहेऽणूनां समासकृत् । स्थितिभ्रान्त्या प्रपद्यन्ते तमात्मानमबुद्धयः ॥
- (समाधितन्त्र श्लो. ६९) इति सिद्धान्तत्वात्। प्रदीपारम्भकावयवादीनां स्वातन्त्र्यपरमाणुत्वाभावात् साध्यविकलो दृष्टान्तश्च।
ननु विश्वसंतानोऽयं दृश्यसंतानशून्यैः समवायिभिरारब्धः६ संतान त्वात् आरणेयाग्निसंतानवदिति अनेन सकलप्रध्वंसपूर्वका सृष्टिर्भविष्यतीति चेन्न । विचारासहत्वात् । दृश्यसंतानशून्यैः समवायिभिरारब्ध इति उसे द्रव्य कहना होगा जो उचित नही है। अतः जातियां सर्वदा अपने व्यक्तियों में विद्यमान रहती हैं यही मानना योग्य है।
प्रत्येक वस्तु के आरम्भक परमाणु स्वतन्त्र होते हैं। उदाहरणार्थ, दीपक के आरम्भक परमाणु (बत्ती, तेल, अग्नि के रूप में) स्वतन्त्र होते हैं। अतः पृथ्वी आदि के आरम्भक परमाणु भी प्रारम्भसमय में स्वतन्त्र रहे होंगे ( वही प्रलय का समय है ) यह कथन भी युक्त नही। पृथ्वी आदि में स्वतन्त्र परमाणुओं का प्रवेश होता है तथा उन से निकले हुए परमाणु भी स्वतन्त्र होते हैं यह जैन मत में भी मान्य है। तथापि जैन मत में पृथ्वी आदि को नित्य ही माना है क्यों कि परमाणुओं के प्रवेश और निर्गमन के साथसाथ पृथ्वी आदि का सम्पूर्ण विनाश नही होता। उदाहरणार्थ – किसी सरोवर में पानी बहकर आता है और जाता भी है किन्तु सरोवर बना रहता है । शरीर के विषय में भी जैन सिद्धान्त इसी प्रकार है - जैसा कि पूज्यपाद आचार्य ने कहा है - 'शरीर यह एक ऐसा परमाणुसमूह है जिस में परमाणु प्रवेश करते हैं और निकलते भी हैं और उसका संकलित रूप स्थिर रहता है उसी को मन्दबुद्धि लोग आत्मा समझते हैं।' अतः स्वतन्त्र परमाणुओं के प्रवेश या निर्गमन से
१ यथा वैतालीह्रदे स्वत एव जलप्रवेशः निर्गमश्च स्वतन्त्र एव । २ समूहे । ३ विश्वासकृत् । ४ स्वरूपम् । ५ वर्तिकातैलादीनाम् । ६ समवायिकारणैः। ७ यथा आरणेयामिसंतानः दृश्यसंतानशून्यसमवायिभिरारब्धः।वि.त.५