________________
. विश्वतत्त्वप्रकाशः
[ २१
अथ कृतबुद्धयुत्पादकत्वमस्मदभिमतं कार्यत्वमिति चेत् तद्धि कृतसंकेतस्य भवेत् अकृतसंकेतस्य वा । आद्यपक्षे गगनादिना हेतोर्व्यभिचारः २ स्यात् । तत्रापि खननोत्सेचनात् कृतमिति गृहीतसंकेतस्य कृतबुद्धयु. त्पादकत्व सद्भावे बुद्धिमद्धेतुकत्वाभावात् । द्वितीयपक्षे असिद्धो हेतुः । अकृतसंकेतस्य मीमांसकादेर्भूभुवनभूधरादिषु कृतबुद्धद्युत्पादकत्वाभावात् । भावे वा अविप्रतिपत्तिरेव स्यात्, न चैवं, विप्रतिपत्तिदर्शनात् । तस्मात्तद्भावो निश्चीयत इति असिद्धो हेतुः ।
४८
[२१. ईश्वरसाधकानुमानानां निरासः । ]
6
अथ तनुकरणभुवनादिकं सकर्तृकम् अचेतनोपादानत्वात् पटादिवदिति भूभुवनादीनां पुरुषकृतत्वसिद्धिरिति चेन्न । आत्मोपादानेषु बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्ने धर्माधर्मादिषु अनुपादानेषु च सकलप्रध्वंसेषु यह कृत है ' ऐसी बुद्धि उत्पन्न होना ही कार्य का लक्षण है यह कथन भी ठीक नहीं । यह कृत है ऐसी बुद्धि विशिष्ट संकेत पर अवलम्बित होती है । आकाश खोदा गया, सींचा गया आदि कल्पनाओं का भी संकेत होता है किन्तु मात्र उतने से आकाश को कार्य नहीं माना जाता । पृथ्वी आदि कृत हैं यह भी एक संकेत है - और मीमांसक आदि को यह संकेत ज्ञात नहीं है - वे पृथ्वी आदि को कृत नहीं समझते । इस लिये 'कृत है ऐसी बुद्धि उत्पन्न करना ' यह लक्षण भी पृथ्वी आदि में घटित नहीं होता । यदि सब लोग पृथ्वी आदिको कृत समझते तो विवाद का कारण ही न रहता ।
-
२१. ईश्वर साधक अनुमान का निरास - पृथ्वी आदि का उपादान अचेतन है अतः वे पुरुषकृत हैं यह अनुमान भी योग्य नहीं । जो कार्य हैं वे अचेतन उपादान से ही होते हैं ऐसा नियम नहीं क्यों कि बुद्धि, सुख, दु:ख आदि का उपादान आत्मा चेतन है । इसी प्रकार सभी विनाश उपादानरहित कार्य होते हैं सचेतन या अचेतन उपादान
१ क्षित्यादिकं सकर्तृकं कृतबुद्धयुत्पादकत्वात् । २ गगनादिकं पुरुषकृतं कृतबुद्धयुस्पादकत्वात् इति व्यभिचारः अथ गगनं कृतं नास्ति । ३ आत्मा चैतन्यरूप उपादानकारणं येषां ते तथोक्ताः तेषु । ४ न उपादानकारणं येषां सकलप्रध्वंसानां ते तथोक्ताः तेषु ।