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ईश्वरलिरासः
५९ 'ब्राह्मणायावगुरेत् तं शतेन यातयाद्यो हनत् सहप्रणेता' इत्यादि श्रुतेश्च निश्चीयते । अथ काम्यनिषिद्धानुष्ठानयोः प्रवर्तनमपीश्वरप्रेरणामन्तरेण कथमिति चेत् प्रागुपार्जितपुण्यपापोदयेन उत्पन्नशुभाशुभपरिणामादिभिरिति ब्रूमः ।। [२४. सृष्टिसंहारप्रक्रियानिरासः।] - यदप्यन्यदनुमानमाख्यत्-विमतं कार्यम् उपादानोपकरणसंप्रदानप्रयोजनसाक्षात्कारिकृतं जन्यत्वात् स्वशरीरक्रियावदिति तदपि निरस्तम्। सुषुप्तशरीरक्रियया हेतोयभिचारात्। तत्र जन्यत्वहेतोः सद्भावेऽपि उपादानापकरणसंप्रदानप्रयोजनसाक्षात्कारिकृतत्वसाध्याभावात्। प्रागुक्तभागासिद्धत्वस्य कालात्ययापदिष्टत्वादेश्चात्रापि समानत्वाश्च । ___ अथ वात्यादीनां नोदनाभिघातेन अवयवेषु क्रिया क्रियातो अवयवविभागः विभागात् संयोगविनाशः संयोगविनाशादवयविद्रव्यविनाशः उसे प्राणदण्ड देना चाहिए।' अब इन शुभ-अशुभ कामों में प्रवृत्ति भी ईश्वर की प्रेरणा से होती है यह कथन भी ठीक नही । यह प्रवृत्ति तो अपने पूर्वोपार्जित पुण्य-पापके उदय से उत्पन्न हुए शुभअशुभ परिणामों-भावनापर अवलम्बित होती है । ईश्वर की प्रेरणा की वहां जरूरत नही है।
२४. सृष्टिसंहार प्रक्रिया का निरास-भूमि आदि जन्य हैं - किसी के द्वारा निर्माण किये गये हैं और इन का निर्माता वही हो सकता है जो उपादान, उपकरण आदि को साक्षात जानता होयह अनुमान ईश्वर की सिद्धि के लिए प्रस्तुत किया जाता है। किन्तु यह भी सदोष है । सोए हुए व्यक्ति के शरीर की क्रियाएं तो होती हैं किन्तु उस व्यक्तिको उस का ज्ञान नही होता। अतः क्रिया का करनेवाला उसको जानता ही हो यह आवश्यक नही है।
न्याय-वैशेषिक मत में सृष्टि के विनाश की प्रक्रिया इस प्रकार है - पहले तो प्रबल वायु के आघात से जगत के अवयवों में क्रिया पैदा होती है, क्रिया से अवयवों में विभाग होता है, विभाग से उनका संयोग नष्ट होता है - वे अलग अलग बिखर जाते हैं, अवयवों के . १ मानविशेष। २ काम्यनिषिद्धयोः अनुष्ठाने तयोः। ३ वयं जनाः । ४ साक्षात्कारी कश्चित् पुरुषः तेन कृतम् ।