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प्रस्तावना
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समय विचार - समन्तभद्र का समयनिर्णय बहुत विवादग्रस्त रहा है । विद्यानन्द ने आप्तपरीक्षा के अन्त में ' मोक्षमार्गस्य नेतारम् ' आदि श्लोक को 'स्वामिमीमांसित' कहा है ' - उसे समन्तभद्र की आप्तमीमांसा का आधार माना है । यह श्लोक पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि वृत्ति के प्रारम्भ में है किन्तु पूज्यपाद ने ही जैनेन्द्रव्याकरण में समन्तभद्र का नामोल्लेख किया है । अत: पं. नाथूराम प्रेमी का मत है कि समन्तभद्र पूज्यपाद के समकालीन थे - समन्तभद्र ने पूज्यपाद के श्लोक पर व्याख्या लिखी और पूज्यवाद ने समन्तभद्र का व्याकरण विषयक मत उद्धृत किया । पं. सुखलाल संघवी तो जैनेन्द्रव्याकरण में समन्तभद्र के उल्लेख को भी कोई महत्व नही देते । उन के मत से समन्तभद्र सातवीं सदी के अन्त के या आठवीं सदी के प्रारम्भ के विद्वान हैं क्यों कि समन्तभद्र ने सर्वज्ञ के अस्तित्व का समर्थन धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक के अनुकरणपर किया है, समन्तभद्र के ग्रन्थों के पहले टीकाकार अकलंक हैं अतः अकलंक के कुछ ही पहले समन्तभद्र का समय होना चाहिए, और तत्त्वसंग्रह में उल्लिखित पात्रस्वामी समन्तभद्र से अभिन्न हो सकते हैं" । किन्तु सब कल्पनाएं व्यवस्थित विचार पर आधारित नहीं हैं । विद्यानन्द ने आप्तमीनांना को 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' आदि श्लोक पर आधारित बताया है किन्तु विद्यानन्द के ही मत से यह श्लोक मूल तत्त्वार्थसूत्र का मंगलाचरण है- पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का नही | अतः विद्यानन्द के आधारपर समन्तभद्र को पूज्यपाद से बाद का सिद्ध नही किया जा सकता । स्वतन्त्र रूप से देखें तो समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा में इस श्लोक का कोई उल्लेख नही किया है, आप्तमीमांसा का वित्रयक्रम इस श्लोक
५-४-१४०१
१) आप्तपरीक्षा लो. १२३। २) जैनेन्द्र व्याकरण ३) जैन साहित्य और इतिहास पृ. ४५ । ४) अकलंक ग्रन्थत्रय - प्राक्कथन । ४) उन्हों ने इस श्लोक के कर्ता को शास्त्रकार ( आप्तपरीक्षा श्लो. १२३), मुनीन्द्र आतपरीक्षा लो. १२४ ) तथा मूत्रकार ( आप्तपरीक्षा श्लो. २ की स्त्रकृत टीका ) कहा इन में सूत्रकार यह विशेषण पूज्यपाद का नही हो सकता । विस्तृत विवरण के लिए देखिए अनेकान्त ५ पृ. २२१ में प दरबारीलाल का लेख ।