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विश्वतत्त्वप्रकाशः
सर्वार्थसिद्धि वृत्ति—यह तत्त्वार्थसूत्र की प्रथम उपल्लब्ध व्याख्या है। इस का विस्तार ५५०० श्लोकों जितना है । वैसे इस टीका की रचना आगमिक शैली की है - तार्किक वादविवाद इस में प्रायः नही है तथापि उत्तरकालीन दार्शनिक चर्चा की बहुमूल्य सामग्री इस में मिलती है। दिशा यह स्वतन्त्र द्रव्य नही - आकाश द्रव्य में अन्तर्भत है, चक्षु इन्द्रिय प्राप्यकारी नही - पदार्थ से साक्षात् सम्बन्ध के विना वह पदार्थ को जान सकता है, आदि कई विषयों का सूत्रारूप में निर्देश इस में मिलता है। इसी लिये अकलंक ने तत्त्वार्थवार्तिक में इस वृत्ति के बहुभाग को आधारभूत वार्तिक वाक्यों के रूप में संगृहीत कर लिया है।
[प्रकाशन-१ मूल - सं. कल्लाप्पा निटवे, कोल्हापूर १९०३ तथा १९१७, २ जयचन्द्रकृत हिन्दी वचनिका - सं. निटवे, कोल्हापूर १९११, ३ हिन्दी पदशः अनुवाद - जगरूप सहाय - जैन ग्रन्थ डिपो, मैनगंज १९२७; ४ प्रस्तावनादिसहित - सं. पं. फलचन्द्र – भारतीय ज्ञानपीठ, बनारस १९५५, ५ इंग्लिश अनुवाद - The Reality. कलकता १९६०]
सारसंग्रह-इस ग्रन्थ से नय का एक लक्षण धवला टीका में उद्धृत किया है, यथा – ' तथा सारसंग्रहेऽप्युक्तं पूज्यपादैः अनन्तपर्यायात्मकस्य वस्तुनः अन्यतमपर्यायाधिगमे कर्तव्ये जात्यहेत्वपेक्षो निरवद्यप्रयोगो नय इति । ' (धवला प्रथम भाग प्रस्तावना पृ. ६०) इस के अतिरिक्त इस का अन्य परिचय प्राप्त नही होता । ग्रन्थ अनुपलब्ध है।
___समयविचार–पूज्यपाद का समय प्रायः सर्वत्र पांचवी सदी का उत्तरार्ध माना गया है । इस का मुख्य कारण है दर्शनसार का वह उल्लेख जिस में पूज्यपाद के शिष्य वज्रनन्दि द्वारा सं. ५२६ (= सन ४७०) में द्राविड संघ की स्थापना का वर्णन है | हमारी दृष्टि में इस में कुछ
१) अर्थात् उमास्वाति का स्वोपज्ञ भाष्य सर्वार्थसिद्धि के पहले का है । २) सिरिपुज्जपादसीसो दाविडसंघस्स कारगो दुट्ठो। णामेण वज्जणंदी पाहुडवेदी महासत्तो ॥ २४॥ पंचसए छब्बीसे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । दक्खिणमहुराजादो दाविडसंघो महामोहो ॥२८॥