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प्रस्तावना
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१२. श्रीदत्त -- पूज्यपाद ने जैनेन्द्र व्याकरण ( १-४-३ ४ ) में श्रीदत्त का उल्लेख किया है । आदिपुराण (१-४५) के उल्लेख से ज्ञात होता है कि वे बडे वादी थे, यथा
श्रीदत्ताय नमस्तस्मै तपः श्रीदीप्तमूर्तये । कण्ठीरवायितं येन प्रवादीभप्रभेदने ॥
विद्यानन्द ने तत्त्वार्यश्लोकवार्तिक (पृ. २८० ) में उन के जल्पनिर्णय नामक ग्रन्थ का उल्लेख करते हुए उन्हें ६३ वादियों के विजेता यह विशेषण दिया है
द्विप्रकारं जगौ जल्पं तत्त्वप्रातिभगोचरम् । त्रिष्टेर्वादिनां जेता श्रीदत्तो जल्प निर्णये ॥
जैन प्रमाणशास्त्र में जल्प और वाद में कोई अन्तर नही है । अतः प्रतीत होता है कि इस ग्रन्थ में वाद के नियम, जयपराजय की व्यवस्था आदि का विचार किया होगा । ग्रन्थ उपलब्ध नही है । श्रीदत्त पूज्यपाद से पहले हुए हैं अतः उन का समय छठी सदी का पूर्वार्ध या उस से कुछ पहले का है ।
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१३. पूज्यपाद देवनन्दि - दिगम्बर परम्परा में तस्वार्थसूत्र के प्रथम व्याख्याकार के रूप में पूज्यपाद का स्थान महत्त्वपूर्ण है । उन का मूल नाम देवनन्दि था तथा पूज्यपाद और जिनेन्द्रबुद्धि ये उन की उपाधियां थीं । तत्त्त्रार्थ की सर्वार्थसिद्धि वृत्ति, जैनेन्द्रव्याकरण, समाधितन्त्र, इष्टोपदेश तथा दशभक्ति (संस्कृत) ये उन के पांच ग्रन्थ उपलब्ध हैं तथा शब्दावतारन्यास, वैद्यकशास्त्र, छन्दः शास्त्र, जैनाभिषेकपाठ तथा सारसंग्रह ये पांच ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं । इन दस में से प्रस्तुत विषय की दृष्टि से दो - सर्वार्थसिद्धि तथा सारसंग्रह - का परिचय अपेक्षित है ।
१) पूज्यपाद के विषय में विवरण के लिए समाधितन्त्र की पं. मुख्तारकृत प्रस्तावना तथा 'जैन साहित्य और इतिहास' में पं. प्रेमी का लेख उपयुक्त है ।