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: प्रस्तावना
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जैसा कि नाम से प्रतीत होता है इस ग्रंथ में पांच अध्याय होने चाहिए। किन्तु उपलब्ध भाग में डेढ अध्याय ही है-सम्भवतः लेखक के देहावसान से ग्रन्थ अधूरा रहा है। प्राप्त ग्रंथ की पद्यसंख्या १९१२ है। इस के दो भाग हैं। पहले अध्याय में द्रव्य,गुण तथा पर्यायों के विषय में जैन मान्यताओं का विशद वर्णन है । इस की विशेषता यह है कि इस विषय में जैनेतर मतों का निरसन करने के साथसाथ जैन परिभाषा में ही जो मतभेद सम्भव हैं उन का भी विस्तृत विचार किया है। निश्चयनय तथा व्यवहारनय इन का परस्पर सम्बन्ध तथा दोनों का कार्य इस प्रकरण में स्पष्ट हुआ है । ग्रन्थ के दूसरे भाग में मोक्षमार्ग के रूप में सम्यग्दर्शन तथा उस के अंगों का व्यापक वर्णन है। .
[प्रकाशन- १ मूलमात्रा प्र. गांधी नाथा रंगजी, अकलूज ( शोलापूर ) १९०६; २ मूल तथा हिंदी टीका -पं. मक्खनलाल, १९१८; ३ मूल व हिंदी टीका-पं. देवकीनन्दन, महावीर ब्रह्मचर्याश्रम, कारंजा, १९३२:४ हिंदी अनुवाद मात्र-सिं. राजकुमार, गोपालग्रन्थमाला (प्रथम अध्याय ); ५ मूल व हिंदी टीका-पं. देवकीनंदन, सं. पं. फूलचन्द्र, वर्णी जैन ग्रंथमाला, काशी, १९५० ]
८२. पद्मसार—ये तपागच्छ के उपाध्याय धर्मसागर के शिष्य थे। इन की ज्ञात तिथियां सन १५८८ से १६०० तक हैं। इन की दो रचनाएं तर्क विषयक हैं-प्रमाणप्रकाश तथा नयप्रकाश । दूसरे ग्रन्थको युक्तिप्रकाश अथवा जैनमण्डन यह नाम भी दिया है तथा इस पर लेखक ने स्वयं टीका लिखी है।
. [प्रकाशन-- प्र. हीरालाल हंसराज, जामनगर ]
१) प्रथम प्रकाशन से कोई १८ वर्ष तक ग्रन्थकर्ता का नाम ज्ञात नही था अतः अंदाज से कुछ विद्वान इसे अमृतचंद्र कृत मानने लगे थे। सन १९२४ में पं. मुख्तार ने वीर (साप्ताहिक ) वर्ष ३ अंक १२-१३ में एक लेख द्वारा यह भ्रम दूर किया। इस लेख का तात्पर्य लाटोसंहिता तथा अध्यात्मकमलमार्तण्ड की प्रस्तावना में भी पं. मुख्तार ने दे दिया है।