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चार्वाक दर्शन- विचारः
शिरादिवत् । शरीरं वा न जीवात्मकम् अचेतनत्वात्, जडत्वात् जन्यत्वात्, रूपादिमत्त्वात् अनित्यत्वात्, सावयवत्वात्, बाह्येन्द्रियग्राह्यत्वात्, पटवदिति प्रतिपक्षसिद्धिः । [ ७. जीवस्य देहकार्यत्वनिषेधः । ]
यदप्यन्यदब्रवीत् - जीवो देहकार्यः देहान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वात् उच्छ्रवासवदिति, तदप्यसमञ्जसम् । कुतः, हेतोरसिद्धत्वात् । तथा हि । सति' भवनमन्वयः, असत्यभवनं व्यतिरेकः । तत्र इदं शरीरं निरात्मकं प्राणादिरहितत्वात् लोष्टादिवदिति सति शरीरेऽपि जीवाभावो निश्चीयते इत्यन्वयाभावः । जीवो धर्मी शरीराभावेऽपि तिष्ठतीति साध्यो धर्मः पृथग्द्रव्यत्वात् निरवयवद्रव्यत्वात् अतीन्द्रियद्रव्यत्वाच्च परमाणुवदिति व्यतिरेकाभावः । एवं जीवस्य शरीरान्वयव्यतिरेकाभावादसिद्धत्वं रूप आदि अचेतन हैं - उन में सुख-दुःख का अनुभव संभव नही है । इस प्रकार यह स्पष्ट हुआ कि जीव चेतन है, जड नही है, बाह्य इन्द्रियों से उसका ग्रहण नही हो सकता, वह निरवयव है तथा स्पर्श आदि से रहित है अतः जीव शरीरात्मक नही है । शिरा आदि जो शरीर के भाग हैं उन में चेतन होना आदि ये विशेषताएं नहीं होतीं । इसी प्रकार शरीर जीवात्मक नही है क्यों कि वह अचेतन है, जड है, उत्पन्न होता है, रूप आदि से युक्त है, अनित्य है, अवयवसहित है तथा बाह्य इन्द्रियों से ज्ञात होता है । अचेतन होना आदि ये विशेषताएं वस्त्र आदि जड पदार्थों में ही होती हैं- जीव में नहीं होतीं । अतः जीव शरीर से भिन्न है ।
७. उद्भट आचार्य के मतका खण्डन
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- उच्छ्वास के समान जीव के अन्वय और व्यतिरेक शरीर के अनुसार होते हैं अतः जीव शरीर का कार्य है यह ( उद्भट आचार्य का ) कहना योग्य नही क्यों कि जीव के अन्वय और व्यतिरेक शरीर के अनुसार नही होते । मृत अवस्था में शरीर विद्यमान होता है किन्तु जीव नही होता अतः जीव का शरीर के साथ अन्वय निश्चित नही है । शरीर के विना भी जीव का अस्तित्व पहले सिद्ध किया है । अतः शरीर के साथ जीव का व्यतिरेक भी नही
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१ देहे सति । २ देहे असति ।
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वि.त. २