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२४ विश्वतत्त्वप्रकाशः
[१३यदप्यन्यवादिषुः-नानुमानमपि तद्ग्राहकं प्रमाण तथाविधानुमानाभावादिति तदप्यसांप्रतं तद्ग्राहकानेकानुमाननिरूपणात् । [१३. आगमप्रामाण्ये सर्वज्ञसद्भावः।]
___ यदप्यन्यत् प्रत्यवातिष्ठिपत्-आगमोऽपि न तत् प्रतिपादयितुं समर्थः तस्य तत्र प्रामाण्याभावात्, आगमो ह्याप्तवचनादिः, आप्तो ह्यवश्वकोऽभिज्ञः, सोऽपिकिंचिज्ज्ञत्वादित्यादि, तदप्यनात्मज्ञभाषितम् । आगमप्रणेतुराप्तस्य सर्वज्ञत्वाङ्गीकारात् । अथासौ कथमङ्गीक्रियते, तदावेदकप्रमाणाभावात्, न तावदागमस्तदावेदकः तथाविधागमाभावादिति चेन्न । सर्वज्ञावेदकागमस्य सद्भावात् । तथा हि ।
'यः सर्वाणि चराचराणि विधिवद् द्रव्याणि तेषां गुणान् । पर्यायानपि भूतभाविभवतः सर्वान् सदा सवेथा। जानीते युगपत् प्रतिक्षणमतः सर्वज्ञ इत्युच्यते। सर्वज्ञाय जिनेश्वराय महते वीराय तस्मै नमः॥' इति ।
[उद्धृत-पाचास्तिकाय-तात्पर्यटीका, गा. १३५ ] के प्रत्यक्ष ज्ञान द्वारा अनादि-अनन्त स्वरूप भी ज्ञात हो सकता है। योगि-प्रत्यक्ष के अस्तित्व में भी चार्वाकों का विश्वास नही है। किन्तु हम शीघ्र ही उस का अस्तित्व सिद्ध करेंगे ।
१३. सर्वज्ञसद्भावपर विचार-आगम प्रमाण से जीव का अनादि-अनन्त रूप ज्ञात नही होता, क्यों कि ऐसे विषयों में आगम प्रमाण नही होता-आदि कथन भी योग्य नहीं है, क्यों कि (जैन दर्शन में ) आगम के प्रणेता सर्वज्ञ का अस्तित्व स्वीकार किया है। सर्वज्ञ के अस्तित्व के लिये कोई प्रमाण नही यह कथन भी योग्य नही क्यों कि निम्नलिखित आगम प्रमाण से सर्वज्ञ का अस्तित्व ज्ञान होता है। यथा- 'जो संपूर्ण चर तथा अचर द्रव्य, उन के गुण तथा भूतकाल, वर्तमानकाल एवं भविष्यकाल के संपूर्ण पर्यायों को पूर्णतः विधिवत् सर्वदा प्रतिक्षण जानते हैं - और इसी लिये जिन्हें सर्वज्ञ कहा जाता है उन सर्वज्ञ महावीर जिनेश्वर को नमस्कार हो । ' इस आगम के प्रमाण होने में आक्षेप करना भी उचित
१ चार्वाकाः। २ अनाद्यनन्तत्व । ३ अघटमानम् । ४ अनाद्यनंतत्वम् । ५ अनाद्यनन्तग्रहणे । ६ सर्वज्ञः । ।