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विश्वतत्त्वप्रकाशः
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हेतुस्तत्सहितपुरुषत्वं साधनं पुरुषत्वमात्रं लिङ्गमिति वा व्यचकल्पामः । तत्र प्रथमपक्षे विरुद्धो हेतुः। रागद्वेषाज्ञानरहितपुरुषस्य भवदभिमतसाध्यविपरीतप्रसाधकत्वात् । द्वितीयपक्षे असिद्धो हेतुः। विवादाध्यासिते पुरुषे रागद्वेषाशानसहितत्वाभावात् । अथ तदभावं केन निरचैषुभवन्तः इत्यसावप्राक्षीत् । तदुच्यते । रागद्वेषाज्ञानानि क्वचिनिःशेषमपगच्छन्ति, तरतमभावेन हीयमानत्वात् । यत्तरतमभावेन हीयमानं तत् क्वचिनिःशेषमपगच्छति, यथा हेमन्यवलोहम्। तरतमभावेन हीय. मानानि चेमानि रागद्वेषाज्ञानानि तस्मात् क्वचिन्निःशेषमपगच्छन्तीत्यनुमानान्निरचैष्मः । वीतः पुमान् रागद्वेषाज्ञानरहितः परमप्रकृष्टज्ञानवैराग्यवत्त्वात्, व्यतिरेके रथ्यापुरुषवदिति च वावद्यामहे । तदपि कुतो यूयमसर्वज्ञ कहा जाता है वह ) पुरुष भी सर्वज्ञ नहीं है। किन्तु यह अनुमान योग्य नही है। पुरुषों में सब समान नही होते-कोई पुरुष राग, द्वेष तथा अज्ञान से सहित होते हैं, कोई पुरुष राग, द्वेष तथा अज्ञान से रहित होते हैं । हम जिन्हें सर्वज्ञ कहते हैं उन में राग, द्वेष तथा अज्ञान का अभाव है । अत: सिर्फ पुरुष होने से उनके सर्वज्ञ होने का निषेध नही होता । इस पुरुष में राग, द्वेष तथा अज्ञान का अभाव है यह विधान भी निराधार नही – इस का अनुमान से समर्थन होता है। राग, द्वेष तथा अज्ञान तरतमभाव से पाये जाते ह - कहीं अधिक होते हैं तथा कहीं कम होते हैं-अतः किसी पुरुष में उन का पूर्ण अभाव होता है । उदाहरणार्थ सुवर्ण में कहीं अधिक मल पाया जाता हैं, कहीं कम मल पाया जाता है और कहीं पूर्णतः निर्मल सुवर्ण भी होता है । इसी प्रकार राग, द्वेष तथा अज्ञान भी कहीं अधिक होते हैं, कहीं कम होते हैं तथा कहीं उन का पूर्ण अभाव भी होता है । दूसरा अनमान यह है कि इस पुरुष में ज्ञान और वैराग्य का परम उत्कर्ष हुआ है अतः यह सवज्ञ है । ज्ञान और वैराग्य के परम उत्कर्ष का भी
१ विकल्पान् कुर्महे स्म वयं जैनाः । २ सर्वज्ञप्रसाधकत्वात्। ३ सर्वज्ञत्वेनाङ्गीकृते । ४ मीमांसकः। ५ निश्चयं कुर्वन्ति स्म । ६ किट्टिकादि। ७ वयं जनाः। ८ यः रागद्वेषाज्ञानरहितो न भवति स परमप्रकर्षज्ञानवान् न भवति यथा रथ्यापुरुषः ।