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[ ६. जीवस्य देहात्मकत्वनिषेधः ।]
यदप्यन्यदवादीत् - देहात्मको जीवः देहादन्यत्रानुपलब्धेः शिरादिव - दिति । तत्र अक्षेणानुपलब्धिर्हेतुर्लिङ्गादिनानुपलब्धिर्वा । प्रथमपक्षे देहादन्यत्रेति विशेषणमनर्थकं देहेऽप्यक्षेण जीवस्यानुपलब्धेः । तथा च सर्वत्रानुपलभ्यमानं कथं देहात्मकं प्रसाध्यते । न कथमपि । द्वितीयपक्षे असिद्ध हेतुः लिङ्गादिना देहादन्यत्र जीवस्योपलब्धेः । तथा जीवो देहादन्यत्रापि तिष्ठति द्रव्यत्वात् परमाणुवदिति अनुमानात् । 6 I असरीरा जीवघणा' इत्याद्यागमञ्च । आगमस्याप्रामाण्यमिति चेन्न । तत्प्रामाण्यस्या विस्तरेण समर्थनात् । साधनशून्यं च निदर्शनम् । शिरादीनां देहादन्यत्रानुपलब्धेरभावात् । यदव्यन्यदवोचत् - जीवः शरीरादनन्यः शरीरव्याघातेन व्याहन्यमानत्वात्, यो यद्व्याघातेन व्याहन्यते स ततो नान्यः, यथा तन्तुव्याघातेन व्याहन्यमानः पटः, तथा चायं तस्मात् तथेति तदप्यचर्चिताभिधानं दृष्टान्तस्य साध्यसाधनभयविक
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चार्वाक दर्शन- विचारः
१ प्रत्यक्षप्रमाणेत ।
५ दृष्टान्तः शिरादिवत् । घटो न नश्यति ।
६. अब चार्वाक आचार्यों ने जीव का जो स्वरूप कहा है उसका क्रमशः खण्डन करते हैं । शिरा आदि के समान जीत्र भी देहात्मक है क्योंकि वह देह से अन्यत्र नही पाया जाता यह ( पुरन्दर आचार्य का ) विधान योग्य नही । जीव के अन्यत्र न होने का ज्ञान प्रत्यक्ष से होगा या अनुमान आदि से होगा । प्रत्यक्ष से तो देह में भी जीव का अस्तित्व ज्ञात नही होता फिर वह देहात्मक है यह कैसे सिद्ध किया जाय । दूसरे, अनुमान आदिसे देह से अन्यत्र भी जीव का अस्तित्व पाया जाता है । जीव परमाणु के समान द्रव्य है अतः वह देहसे अन्यत्र भी पाया जाता है - यह अनुमान है तथा ' ( सिद्ध ) शरीररहित एवं केवल चैतन्यरूप होते हैं ' यह आगम प्रमांण है- इन प्रमाणों से देह से अन्यत्र भी जीव का अस्तित्व ज्ञात होता है । यह आगम अप्रमाण है यह आक्षेप भी योग्य नही । आगम के प्रामाण्य का हम आगे विस्तार से समर्थन करेंगे । तन्तुओं का नाश होने पर वस्त्र का नाश होता है उसी प्रकार शरीर का नाश होने पर जीव का भी नाश होता है अतः जीव
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२ अनुमानप्रमाणेन । ३ देशकाले । ६ साध्यात् शरीरात् दृष्टान्तः घटो भिन्नः ।
४ देहं विना ।
७ शरीरनाशे