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विश्वतत्त्वप्रकाशः .... ९८. तार्किक साहित्य का युगविभाग- पं. दलसुख मालवाणिया ने जैन दार्शनिक साहित्य को चार युगों में विभक्त किया है (१) आगमयुग ( वीरनिर्वाण से वलभी वाचना तक के कोई एक हजार वर्ष), (२) अनेकान्त स्थापनयुग (पांचवीं से सातवीं सदी तकसमन्तभद्र तथा सिद्धसेन इस युग के प्रधान आचार्य थे), (३) प्रमाणशास्त्र व्यवस्थापन युग ( आठवीं से सोलहवीं सदी तक- अकलंक तथा हरिभद्र एवं उन की परम्परा द्वारा इस युग का निर्माण हुआ), एवं (४) नवीनन्याययुग ( यशोविजय तथा उन की परम्परा द्वारा जैन साहित्य में नवीन न्याय की शैली का प्रवेश- सत्रहवीं सदी में)। पं. महेन्द्रकुमार ने भी प्रायः इसी विभाजन को मान्य किया है। इस युगविभाग से एक दृष्टि से तार्किक साहित्य के विकास को समझने में सहायता अवश्य मिलती है। इस के साथ एक दूसरी दृष्टि से भी तार्किक साहित्य का युगविभाग हो सकता है। हम तार्किक साहित्य को तीन युगों में .विभाजित करते हैं (१) प्रारम्भिक निर्माण युग-यह प्रायः आगमयुग का नामांतर समझ सकते हैं । इस युग में- जो वीर निर्वाण से कोई एक सहस्र वर्षों तक का है- तत्त्व प्रतिपादन में स्वमत का वर्णन प्रमुख हैपरमत का खण्डन गौण है, नयों का महत्त्व अधिक है- प्रमाणों की चर्चा कम है, तार्किक चर्चा स्वतंत्र रूप में नही है-धर्मचर्चा के व्यापक क्षेत्र का अंगमात्र रही है। (२) तर्कविकास यग-समन्तभद्र से देवसूरिहेमचन्द्र तक कोई आठसौ वर्षों का यह युग है । इस युग में नैयायिक, बौद्ध, मीमांसक, वेदान्ती आदि के समान जैन विद्वान भी राजसभाओं
और विद्वत्सभाओं में वाद विवाद करते थे, बाद में स्वपक्ष के जय और परपक्ष के पराजय का महत्त्व बहुत बढा था, इसलिए ग्रन्थों में भी स्त्रमतसमर्थन और परमतखण्डन के लिए नई नई युक्तियों का प्रणयन आवश्यक हुआ था। इस युग में नयों का प्रतिपादन गौण हो कर प्रमाणों की चर्चा प्रमुख हुई थी तथा तर्क को धर्मशास्त्र के साधारण क्षेत्रा से अलग ऐसा विशिष्ट स्थान प्राप्त हुआ था। (३) संरक्षण युगतेरहवीं सदी से अठारहवीं सदी तक कोई छहसौ वर्षों का यह युग है।