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विश्वतत्त्वप्रकाशः
[प्रकाशन--१ सं. पं. वंशीधर, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई १९१२; २ सं. प. महेन्द्रकुमार, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, १९४१]
- न्यायकुमुदचन्द्र अकलंकदेव के लघीयत्रय की टीका है तथा इस का विस्तार १६००० श्लोकों जितना है । मूल ग्रन्थ परीक्षामुख के समान ही प्रमाण विषयक है किन्तु टीका में प्रभाचन्द्र ने प्रमेय विषयों का भी विस्तृत विचार किया है । सन्मतिटीका में अभयदेव ने स्त्रीमुक्ति के विषय में श्वेताम्बर पक्ष प्रस्तुत किया था उस का उत्तर प्रभाचंद्र ने इस ग्रन्थ में दिया है। साथ ही ब्राह्मणत्व जाति आदि के खण्डन में वे अभयदेव के विचारों का समर्थन भी करते हैं। प्रभाचन्द्र के दोनों ग्रंथों की विशेषता यह है कि उन में उच्चतम वाद विषयों की चर्चा में भी भाषा की क्लिष्टता नही है। अपनी प्रसन्न- गम्भीर भाषाशैली के कारण ये ग्रन्थ जैनन्याय के अत्युत्तम ग्रन्थों में गिने जाते हैं।
[प्रकाशन-सं. पं. कैलाशचंद्र तथा महेंद्रकुमार, माणिकचंद्र ग्रंथमाला, बम्बई, १९३८-४१]
.. ३८. देवसेन- देवसेन धारा नगरी के निवासी थे तथा विमलसेन आचार्य के शिष्य थे। उन का समय दर्शनसार के अनुमार सं. ९९० के आसपास का है। पहले हमने बताया है कि देवसेन के संवत्उल्लेख शकवर्ष के होना अधिक सम्भव है । अतः उन का समय शक ९९० = सन १०६८ के आसपास – ग्यारहवीं सदी का मध्य समझना चाहिए । उन के छह ग्रन्थों में दो नय विषयक हैं । इन में एक नयचक्र ८७ गाथाओं का प्राकृत प्रकरण है । इस में द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक इन दो मूलनयों के सद्भूत, असद्भूत, उपचरित, अनुपचरित आदि उपनयों का उदाहरणसहित वर्णन किया है ।
[प्रकाशन- नयचक्रादिसंग्रह - सं. पं. वंशीधर, माणिकचन्द्र प्रयवाला, बम्बई, १९२०] mmmmmmmmmmmmmm
१) देवनन्दि पूज्यपाद के विषय में ऊपर दिया हुआ विवरण देखिए ।