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प्रस्तावना
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दूसरा ग्रन्थ आलापपद्धति संस्कृत गद्य में है तथा इस का विस्तार २५० श्लोकों जितना है । यह नयचक्र का ही प्रश्नोत्तररूप स्पष्टीकरण है। द्रव्यों के गुणों तथा पर्यायों का विवरण इस में अधिक है।
[प्रकाशन-१ दि. जैन ग्रंथभंडार काशी का प्रथम गुच्छक - पन्नालाल चौधरी, बनारस १९२५, २ नयचक्रादिसंग्रह में - सं. पं. वंशीधर, माणिकचन्द्र ग्रंथमाला, बम्बई १९२० ]
दर्शनसार, आराधनासार, तत्त्वसार तथा भावसंग्रह ये देवसेन के अन्य ग्रंथ हैं।
३९. माइल्ल धवल- देवसेन के नयचक्र को कुछ विस्तृत रूप दे कर माइल्ल धवल - जो सम्भवतः देवसेन के शिष्य थे? – ने 'द्रव्यस्वभाव प्रकाश नयचक्र' की रचना की। इसे बृहत् नय चक्र भी कहा जाता है। यह ग्रन्थ पहले दोहा छंद में लिखा गया था, फिर शभंकर नामक सज्जन के इस अभिप्राय पर कि यह विषय दोहों में अच्छा नही लगता - इस की ४५३ गाथाओं में रचना की गई।
[प्रकाशन- नयचक्रादिसंग्रह - सं. पं. वंशीधर, माणिकचन्द्र प्रन्यमाला, बम्बई, १९२०]
४०. जिनेश्वर- ये चन्द्रकुल की वज्रशाखा के आचार्य वर्धमान के शिष्य थे। ये मध्यदेश के निवासी कृष्ण ब्राह्मण के पुत्र थे तथा इन का मूल नाम श्रीधर था । इन के बन्धु श्रीपति भी मुनिदीक्षा लेकर बुद्धिमागर आचार्य के नाम से विख्यात हुए थे। अणहिलपुर में दुर्लभराज की सभा में चैत्यवासी मुनियों से शास्त्रार्थ कर के जिनेश्वर ने विधिमार्ग का प्रसार किया। यही परम्परा बाद में खरतर गच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुई। जिनचन्द्र तथा अभयदेव ये जिनेश्वर के प्रधान शिष्य थे।
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१) दुसमीरपोयमिवायपताण (?) सिरिदेवसेणजोईणं । तेसि पायपसाए उवलद्धं समणतच्चेण ।। इस की प्रतियों में माइल्लधवलेण' शब्द पर 'देवसेनशिष्येण' यह टिप्पणी मिली है (जैन साहित्य और इतिहास पृ. १७३)। २ ) सुणिऊण दोहरत्थं सिग्धं हसिऊण सुहं करो भणइ । एत्थ ण सोहइ अस्थो गाहाबंधेण तं भणउ ॥ दव्वसहावपयासं दोहय. बंधेण आसि जं दिटुं। तं गाहाबंधेण य रइयं माइल्लधवलेण ।। वि.त.प्र.६