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विश्वतत्त्वप्रकाशः
यह पारिभाषिक संज्ञा थी। इस पत्रश्लोक का स्पष्टीकरण यदि प्रतिवादी न कर सके तो उस का पराजय होता था। प्रस्तुत प्रकरण में आचार्य ने पत्रश्लोक का अर्थ अनेकान्तात्मक ही होना चाहिए यह स्पष्ट किया है तथा एकान्तवादी पत्रों की सदोषता स्पष्ट की है।
[प्रकाशन-मूल-सं. पं. गजाधरलाल, सनातन जैन ग्रन्थमाला, १९१३, काशी]
सत्यशासनपरीक्षा-यह प्रकरण खण्डित रूप में प्राप्त हुआ है तथा अभी अप्रकाशित है । प्राप्त परिचय के अनुसार इस का विस्तार १००० श्लोकों जितना है । इस में पुरुषाद्वैत, शब्दाद्वैत, विज्ञानाद्वैत, चित्राद्वैत, चार्वाक, बौद्ध, सांख्य, न्यायवैशेषिक, मीमांसा, तत्त्वोपप्लव तथा अनेकान्त (जैन) दर्शनों के सिद्धान्तों का क्रमशः विचार किया है। उपलब्ध प्रति मे शब्दाद्वैत, तत्त्वोपप्लव तथा अनेकान्तदर्शन का परिचयपर अंश प्राप्त नही है । सम्भव है कि यह आचार्य की अन्तिम कृति हो तथा उन के स्वर्गवास के कारण अपूर्ण रही हो।
समय तथा परम्परा-विद्यानन्द ने अष्टसहस्री (पृ० १६१) में सुरेश्वर के बहदारण्यकवार्तिक का तथा श्लोकवार्तिक में (पृ० २०६) वाचस्पति का न्यायवार्तिक टीका का उल्लेख किया है। इन दोनों की ज्ञात तिथियां क्रमशः सन ८२० तथा ८४१ हैं। अतः नौवीं सदी के उत्तरार्ध में विद्यानन्द का कार्यकाल प्रतीत होता है । उन्हों ने अपने तीन ग्रन्थों में सत्यवाक्य नामक राजा का श्लिष्ट शब्दों से उल्लेख किया है। मैसूर प्रदेश के गंग राजवंश में सत्यवाक्य उपाधि चार राजाओं ने धारण की थी। इन में पहले राजा राजमल्ल (प्रथम) का राज्यकाल सन ८१६ से ८५३ तक था । यह उपाधि धारण करनेवाले दूसरे राजा राजमल्ल
१ पं. महेन्द्रकुमार - अनेकान्त व. ३ पृ. ६६०-६५। भारतीय ज्ञानपीठ बनारस की ओर से इस ग्रन्थ का सम्पादन हो रहा है। २) आप्तपरीक्षा श्लो. १२३: विद्यानन्दैः स्वशक्त्या कथमपि कथितं सत्यवाक्यार्थसिद्धयै ॥ प्रमाणपरीक्षा श्लो. १: सत्यवाक्याधिपाः शश्वद् विद्यानन्दा जिनेश्वराः ।। युक्त्यनुशासन टीका प्रशस्तिः विद्यानन्दबुधैरलंकृतमिदं श्रीसत्यवाक्याधिपैः ॥ ३) बाबू कामताप्रसाद ने विद्यानन्द को इस राजा का ही समकालीन माना है (जैन सिद्धान्त भास्कर वर्ष ३, भा. ३, पृ. ८७)। पं. दरबारीलाल आप्तपरीक्षाप्रस्तावना में इसी मत को स्वीकार करते हैं।