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प्रस्तावना
४९ संशोधन आवश्यक है । दर्शनसार में दी हुई सभी तिथियां विक्रमराज के मृत्युवर्ष के अनुसार दी हैं । किन्तु उन का सामंजस्य प्रचलित विक्रमसंवत की अपेक्षा शकसंवत से अधिक बैठता है । उदाहरणार्थ - कुमारसेन का समय दर्शनसार में सं. ७५३ दिया है और कुमारसेन के गुरुविनयसेन के गुरुबंधु जिनसेन का ज्ञात समय शक सं. ७५९ ( जयधवला की समाप्ति ) है । यदि कुमारसेन का समय प्रचलित विक्रमसंवत के अनुसार सं. ७५३ मानें तो यह बात संभव नही होगी - उस अवस्था में जिनसेन से १४१ वर्ष पहले कुमारसेन का समय सिद्ध होगा । अतः दर्शनसारोक्त वर्षगणना शककाल की मानना आवश्यक होता है । तदनुसार पूज्यपाद के शिष्य वज्रनन्दि का समय शक सं. और पूज्यपाद का समय छठी सदी का उत्तरार्ध पूज्यपाद गंगराजा दुर्विनीत के गुरु थे ऐसी मान्यता है समय भी छठी सदी का उत्तरार्ध ही निश्चित हुआ है का समय भी तदनुसार छठी सदी मानना चाहिए ।
५२६=सन ४०६ मानना होगा' ।
। दुर्विनीत का । अतः पूज्यपाद
१४. वज्रनन्दि — पूज्यपाद के शिष्य तथा द्राविड संघ के स्थापक वनन्दि का उल्लेख ऊपर किया है । दर्शनभार के उस उल्लेख में उन्हें प्राभृतवेदी तथा महासत्व कहा है । हरिवंश पुराण (१-३२ ) में
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१) जैनेन्द्र महावृत्ति प्रस्तावना में पं. युधिष्ठिर ने देवनन्दि का समय पाचवीं सदी ( मध्य ) मानने के लिए यह तर्क दिया है कि देवनन्दि ने निकट भूतकाल के उदाहरण 'अरुण महेन्द्रो मथुराम्' यह वाक्य दिया है तथा इस में उल्लिखित महेन्द्र गुप्त सम्राट कुमारगुप्त हैं । किन्तु यह तर्क ठीक नही हैं । उक्त उदाहरण देवनन्दि ने स्वयं दिया हुआ नही है-महावृत्तिकार अभयनन्दि का है तथा अभयनन्दि का समय नवीं सदी सुनिश्चित हैं । अतः उक्त उदाहरण में उल्लिखित महेन्द्र अभयनन्दि के समकालं न कोई राजा होने चाहिए । २) पं. शान्तिराजशास्त्री के अनुसार यह मान्यता भ्रसमूलक है दुर्विनीत शब्दावतार ग्रन्थ का कर्ता था तथा पूज्यपाद को भी शब्दावतारकर्ता कहा गया है, किन्तु इतने पर से उन में गुरुशिष्य सम्बन्ध की कल्पना ठीक नही ( तत्त्वार्थस् त्रभास्करनन्दिकृत वृत्तिकी प्रस्तावना ) । ३) दि क्लासिकल एज पृ. २६९. ४) पूज्यपाद विषयक कथाएं बिलकुलही अविश्वसनीय हैं - एक में पाणिन को उन का मामा बतलाया है (समाधितंत्र प्रस्तावना पृ. १०, जैन साहित्य और इतिहास पृ. ५० ।) वि. त प्र. ४