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प्रस्तावना
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विद्यानन्द के नौ ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं । इन में तीन व्याख्यानात्मक तथा छह स्वतन्त्र हैं । इन का क्रमशः परिचय इस प्रकार हैं ।
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक – यह तत्त्वार्थसूत्र की विशद व्याख्या १८००० श्लोकों जितने विस्तार की है । मूल सूत्रों के विषय में साधकबाधक चर्चा के लिए श्लोकबद्ध वार्तिक तथा उन का लेखक द्वारा ही गद्य में स्पष्टीकरण ऐसी इस की रचना है अतः इसे श्लोकवार्तिकालंकार यह नाम भी दिया गया है । ग्रन्थ का आधे से अधिक भाग पहले अध्याय के स्पष्टोकरण में लिखा गया है । इस के प्रारम्भ में मोक्षमार्ग के उपदेशक सर्वज्ञ की सिद्धता, मोक्ष प्राप्त करनेवाले जीव की सिद्धता तथा अद्वैतवादादि का निरसन प्रस्तुत किया है। ज्ञान के प्रकार, प्रमाण, नय तथा निक्षेपों की भी विस्तृत चर्चा की है। शेष अध्यायों का विवेचन मुख्यतः आगमाश्रित है ।
[ प्रकाशन - १ मूल - सं. पं. मनोहरलाल, प्र. रामचन्द्र नाथा रंगजी, १९१८, बम्बई २ मूल व हिन्दी अनुवाद - पं. माणिकचन्द कौन्देय, आ. कुन्थुनागर ग्रन्थमाला, १९४९, सोलापूर ]
अष्टसहस्री - समन्तभद्र की आप्तमीमांसा तथा उस की अकलंककृत अष्टशती टाका पर यह विस्तृत व्याख्या है । नाम के अनुसार ८००० श्लोकों जितना इस का विस्तार है । लेखक के ही कथनानुसार यह टीका बहुत परिश्रम से लिखी गई है - ' कष्टसहस्रीसिद्धा' है। इसकी रचना में कुमारसेन के वचन साहाय्यक हुए थे इसे लेखक ने ' कुमारसेनोक्तिबर्धमानार्था ' कहा है । आप्तमीमांसा की टीका होने से इसे देवागम लंकार भी कहा गया है । मूल ग्रन्थानुमार विविध एकान्तवादों का विस्तृत निरसन इस में है। साथ ही प्रारम्भ में शब्द और अर्थ के सम्बन्ध में विधि, नियोग, भावना आदि वादों का विस्तृत समालोचन प्रस्तुत किया है - यह प्रायः स्वतन्त्र विषय भी चर्चित हैं । इस ग्रन्थ पर लघुसमन्तभद्र ने टिप्पण लिखे हैं तथा यशोविजय ने विषमपदतात्पर्यविवरण लिखा है ।
[ प्रकाशन - मूल तथा टिप्पण - सं. पं. वंशीधर, प्र. रामचंद्रनाथारंगजी गांधी, १९१५, अकलूज ( जि. शोलापुर ) ]