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ईश्वर का निरसन, मुक्ति का स्वरूप तथा मुनि का सम्पूर्ण अपरिग्रह व्रत इस के प्रमुख विषय हैं । इस स्तोत्र पर किसी अज्ञात लेखक की संस्कृत टीका है ।
प्रस्तावना
[ प्रकाशन- १ मूल - सनातन जैन ग्रन्थमाला का प्रथम गुच्छक काशी १९०५ तथा १९२५ २ संस्कृतटीकासहित – तत्त्वानुशासनादि संग्रह में – सं. पं. मनोहरलाल, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई १९९८; ३ मराठी स्पष्टीकरण के साथ - पं. जिनदासशास्त्री फडकुले, प्र. हिराचंद गौतमचंद गांधी, निमगांव १९२१; ४ हिन्दी अनुवाद के साथ पं. श्रीलाल तथा लालाराम, चुन्नीलाल जैन ग्रन्थमाला ]
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उपर्युक्त विवरण के अनुसार पात्रकेसरी समन्तभद्र के बाद एवं अकलंक तथा शान्तरक्षित के पहले हुए हैं अतः उन का समय छठीं या सातवीं सदी में निश्चित है ? ।
१८. शिवार्य - जिनदासगणी महत्तर ने सन ६७६ में निशीथसूत्र की चूर्णि लिखी । इस में जैन दर्शन की महिमा बढानेवाले ग्रन्थों के रूप में सिद्धिविनिश्चय तथा सन्मति इन दो ग्रन्थों का उल्लेख है । पहले इस सिद्धिविनिश्चय को अकलंककृत समझा गया । किन्तु बाद में पता चला कि यह अकलंक से पूर्ववर्ती शिवार्य अथवा शिवस्वामी नामक आचार्य का ग्रन्थ है । इस का उल्लेख शाकटायन ने अपने व्याकरण में इस प्रकार किया है ( १।३।१६८ ) - ' शोभनः सिद्धेर्विनिश्चयः शिवार्यस्य शिवार्येण वा | शाकटायन के स्त्रीमुक्तिप्रकरण की एक टीका में भी इस का उललेख इस प्रकार है ' अस्मिन्नर्थे भगवदाचार्य शिवस्वामिन: सिद्धिविनिश्चये युक्भ्यधायि आर्याद्वयमाह – यत्संयमोपकाराय वर्तते । इस उल्लेख से ज्ञात होता है कि इस ग्रन्थ में संस्कृत पद्यों में स्त्रीमुक्ति आदि विषयों की चर्चा थी । यह ग्रन्थ अनुपलब्ध है । भगवती आराधना के कर्ता
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१) पात्र केसरी तथा विद्यानन्द एक ही व्यक्ति थे ऐसा भ्रम कुछ वर्ष पहले रूढ हुआ था । इस का निराकरण पं. मुख्तार ने किया ( अनेकान्त वर्षं १ पृ. ६७ ) । पात्रकेसरी का शल्यतन्त्र नामक ग्रन्थ भी था ऐसा उग्रादित्यकृत कल्याणकारक ( २०-८५ ) से ज्ञात होता है ।