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प्रस्तावना
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भारत के विभिन्न प्रान्तों में प्रवास किया तथा धूर्जटि जैसे वादियों को भी पराजित कर यश प्राप्त किया ।
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बटू
समन्तभद्र के पांच ग्रन्थ उपलब्ध हैं तथा तीन अनुपलब्ध हैं 1 उन के दो ग्रन्थ- आप्तमीमांसा व युक्त्यनुशासन - पूर्णतः तर्काश्रित हैं, स्वयंभू स्तोत्र का भी काफी भाग तर्कश्रित है । शेष दो ग्रन्थ- जिनस्तुतिशतक व रत्नकरण्ड – अन्य विषयों के हैं । अनुपलब्ध ग्रन्थों में दो खण्डागम टीका तथा तत्त्वार्थभाष्य - आगमात्रित प्रतीत होते हैं और एकजीवसिद्धि-- तर्काश्रित प्रतीत होता है । इन का क्रमशः परिचय इस प्रकार है । आप्तमीमांसा- - यह ११४ श्लोकों की रचना है । इस के प्रारम्भ में देवागम शब्द है अतः यह देवागमस्तोत्र इस नाम से भी प्रसिद्ध है । प्रारम्भ में यह प्रश्न उठाया है कि तीर्थंकर महावीर की श्रेष्ठता किस बात पर आधारित है ? उत्तर में कहा है कि देवों द्वारा सन्मान होना, शारीरिक अदभुता होना अथवा बडे संघ के आचार्य होना यह श्रेष्ठता का गमक नही है-वे सर्वज्ञ हैं, निर्दोष हैं तथा उन के वचन युक्तिशास्त्र के अनुकूल हैं यह श्रेष्ठता का गमक है । इस प्रस्तावना के विस्तार में महावीर का सर्वज्ञ होना तथा उन के वचनों का स्यादवादरूप अतएव निर्दोष होना सिद्ध किया है । वस्तुतत्त्व के निरूपण में स्यादवाद का प्रयोग कैसे किया जाता है यह समन्तभद्र ने बहुत विस्तार से स्पष्ट किया है । भाव और अभाव, नित्यता
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१) श्रावणबेलगोल के मल्लित्रषेणप्रशस्ति नामक शिलालेख में जो शक १०५० क है - समन्तभद्र के भ्रमण का वर्णन उन के ही मुख से इस प्रकार दिया है [ जैन शिलालेख संग्रह १. पृ. १०१ ] काञ्चयां नग्नाटकोsहं मलमलिनतनुर्लाम्बुशे पाण्डुपिण्डः पुण्ड्रोड्रे शाक्यभिक्षुदर्शपुरनगरे मिष्टभोजी परिव्राट् । वाराणस्यामभूवं शशधरधवलः पाण्डुरांगस्तपस्वी राजन् यस्यास्ति शक्तिः स वदतु पुरतो जैन निर्ग्रन्थवादी ॥ पूर्व पाटलिपुत्रमध्यनगरे भेरी मया ताडिता पश्चान्मालवसिन्धुठक्कविषये काञ्चीपुरे वैदिशे । प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभटं विद्योत्कटं संकटं वादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितम् ॥ अवटु म झटिति स्फुटचटुवा चाट धूर्जटेरपि जिव्हा । वादिनि समन्तभद्रे स्थितवति तव सदसि भूप कास्थान्येषाम्॥ २) रत्नकरण्ड के कर्तृत्व के विषय में कुछ विवाद है । ३) यह श्लोकसंख्या अकलंक की अष्टशती के अनुसार है । वसुनंदि की वृत्ति में अन्त में एक मंगल श्लोका अधिक है अतः वहां श्लोकसंख्या ११५ I