Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
अष्टमोऽध्यायः
पुद्गलानां नरादानं बंधो द्रव्यात्मकः स्मृतः । योग्यानां कर्मणः स्वष्टानिष्टनिर्वर्तनात्मनः ॥ १ ॥
( २१
अपने इष्ट, अनिष्ट फलोंको बनानेवाले स्वरूप कर्मके योग्य हो रहे पुद्गलोंका कषाययोग्यवाले आत्मा को जो आदान हो रहा है वह पूर्वाचार्य संप्रदाय अनुसार द्रव्यआत्मक बंध हुआ कहा जाता है, या अबतक आचार्य परंपरानुसार स्मृति से चला आया है ।
कथं पुनः पुद्गलाः कर्मपरिणामयोग्याः केचिदुपपद्यन्ते इत्याह ।
यहां कोई तार्किक पूँछता है कि कोई पुद्गल ही कर्म परिणति के योग्य हैं. यह सिद्धान्त फिर किस प्रकार युक्तियों से उपपन्न हो जाता है ? ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर आचार्य महाराज अग्रिम वार्तिक को कहते हैं ।
पुद्गलाः कर्मणो योग्याः केचिन्मूर्तार्थयोगतः । पच्यमानत्वतः शालि - बीजादिवदतीरितं ॥२॥
कोई कोई पुद्गल ही (पक्ष) कर्म होने के योग्य हैं ( साध्य ) मूर्त अर्थका योग हो जाने से परिपाक हो रहा देखा जानेसे ( हेतु ) शाली चावलोंके बीज, आम्रफल रोटी आदिके समान (अन्वयदृष्टान्त) इस अनुमान से कर्मोंका पौद्गलिकपना सिद्ध हो जाता है । इस बात को हम पहिले भी कई प्रकरणों मे कह चुके हैं ।
पुद्गला एव कर्मपरिणामभाजो मूर्तद्रव्यसंबंधेन विपच्यमानत्वाच्छालिबीजादिवदित्युक्तं पुरस्तात् । ततः कर्मगो योग्याः पुद्गलाः केचित्सन्त्येव ।।
पुद्गल ही (पक्ष) कर्मपरिणतियों को धार रहे हैं, ( साध्यदल ) मूर्त द्रव्य के संबन्ध करके विशेषतया परिपाक हो रहा होनेसे ( हेतु ) शालिधान, गेहूं आदिके बीज या ईन्ट, दाल आदि के समान (दृष्टांत ) । अर्थात् पौद्गलिक आतप, तृण, अग्नि आदि करके जैसे धान्य बीज पक जाते हैं, अग्नि से रोटी पक जाती है, अतः ये मूर्त द्रव्य माने गये पुद्गल से परहे पदार्थ जैसे पौद्गलिक हैं उसी प्रकार मखमल, गुड, पुष्प, सुन्दररूप आदि करके सातावेदय