Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
वर्गणा पुदगलों के कर्म परिणाम हो जाने का सद्भाव है। जैसे कि गुड,पानो,पिठी,धातकीपुष्प आदिक मदिरा योग्य पुद्गलोंसे उन गीले हो रहे विशेष भांड मे मदिरा योग्य अंगूर, महुआ आदि पुद्गल फलोंका मदिरा परिणाम हो जाता है, अर्थात् नालिका यन्त्रवाले विशेष वर्तनमे धर दिये गये, सडा दिये गये, अनेक रसोंवाले बीज, फूल, फलों या गुड, पिठी आदि का प्रक्रिया द्वारा मद्यपरिणाम हो जाता है।
करणादिसाधनो बंधशब्दः तस्योपचयापचयसद्भावः कर्मणामायव्ययदर्शनात् ब्रोहिकोष्ठागारवत्। कर्मणामायव्ययदर्शनं तत्फलापव्ययानुभवनात् सिद्ध - ततो नुमितानुमानं । एतदेवाह।
"बंध बंधने" धातुसे करण, कर्म, भाव आदिसे घञ्प्रत्ययकर बंध शब्दकी सिद्धी करली जाय । बध्यतेऽनेन, बध्यते यत्, बंधनमात्रं बध्नाति वा यों निरुक्तिकर मिथ्यादर्शन आदिको अपेक्षावश बंध कहा जा सकता है। पर्याय और पर्यायो में कथंचित् भेद, अभेद की अपेक्षा अनुसार स्वतन्त्रता, परतन्त्रता की विवक्षा बन जाती है। कर्मोका आय और व्यय देखा जाता है । अतः कर्मपिण्डके उपचय (वृद्धि) और अपचय (हानि) का सद्भाव है, जैसे कि कोष्ठगृह यानी धान्यों के कोठार मे अनेक धान्य आते जाते रहते हैं, उसी प्रकार अनादि कालीन प्रवाह रूपसे कर्म कोठारमे नवीन कर्मों के आनेसे और अन्यसंचित कर्मोंके फल देकर निकल जानेसे उपचय, अपचय होते रहते हैं । भारतवर्ष मे प्रतिदिन अनेक मनुष्य जन्मते मरते रहते हैं, पसारी की दुकान मे अनेक वस्तुयें आती जाती रहती हैं, दुकानदारी के गल्ले मे सैकड़ो पैसे रुपये आयव्यय होकर बढते, घटते रहते हैं। संसारी आत्माके भी कर्मोंका यही क्रम चलता रहता है, किंचित् ऊन डेड गुणहानि प्रमाण द्रव्य सदा संचित रहता है, भोगोंद्वारा उन कर्मोके फलों के आयव्यय का अनुभव होते रहनेसे कर्मोंका आयव्यय दीखना सिद्ध हो जाता है, यों यह अनुमित अनुमान हुआ एकबार अनुमान कर पुनः उस साध्य को हेतु बनाकर दुसरे अनुमान द्वारा कर्मों की वृद्धि हानि को साध दिया है। "कर्मणां (पक्ष) उपचयापचयौ स्तः ( साध्य ) आयव्ययदर्शनात् (हेतु) ब्रीहिकोष्ठागारवात् (अन्वय दृष्टांत)" यह पहिला अनुमान है, तथा " कर्मणां ( पक्ष ) आयव्ययौ स्तः ( साध्यदल ) तत्फलायव्ययदर्शनात् ( हेतु ) पेट मे खाये निकले जा रहे पदार्थ के समान ( अन्वयदृष्टांत ) यह दुसरा अनुमान पहिले अनुमान के हेतुदल को स्पष्ट कर रहा है, इस ही सूत्रोक्त बातका ग्रन्थकार अग्रिम वात्तिक द्वारा स्पष्ट कह रहे हैं।