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प्रथम अधिकार ::7
अर्थ-हम जब कि वास्तविक दु:खमुक्त होना चाहते हैं तो दुःखदायक परसंयोग में से जुदा करके कैसे निकलें, जिससे कि अशुद्धता मिट जाए? और साथ ही किसे दूर करें? इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि जुदा निकालकर ग्रहण करने योग्य जो तत्त्व है वह 'जीव' है और निकालकर दूर करने योग्य जो तत्त्व है वह 'अजीव' है। इन्हीं हेयोपादेयरूप अजीव व जीवतत्त्व में से जो हेय अजीवतत्त्व का जीव के साथ ग्रहण या बन्धन करानेवाला कारण है वह 'आस्रव' तत्त्व है। अजीव छोड़ने योग्य चीज है, इसलिए उसे हेय कहते हैं। जीवतत्त्व अपनाने लायक है, इसलिए उसे उपादेय कहते हैं।
हेयोपादान-रूपेण बन्धः स परिकीर्तितः। संवरो निर्जरा हेय-हानहेतुतयोदितौ॥8॥
हेयप्रहाणरूपेण मोक्षो जीवस्य दर्शितः ॥ (षट्पद) अर्थ-निकालकर दूर करने योग्य अजीवतत्त्व का जो जीव में आकर मिल जाना है वह 'बन्ध' तत्त्व है। जीव में मिल जाने योग्य तथा मिलने के लिए सन्मुख हुए इस आस्रव या अजीवतत्त्व का न बँधने देने का कारण तथा बँधे हुए को जुदा करके बाहर निकाल देनेवाला जो कारण है उसे 'संवर' व 'निर्जरा' नाम से दो विभागों में विभक्त कर बताया है। हेय अर्थात् अजीव का जीव में से सर्वथा अलग हो जाना, इसी को 'मोक्ष' तत्त्व कहते हैं। इस प्रकार इन सातों तत्त्वों के भेद होने में उक्त सात प्रयोजन हैं और लक्षण भी सातों के ये ही हो सकते हैं।' निक्षेपों द्वारा शब्दों के अर्थ समझने की विधा
तत्त्वार्थाः खल्वमी नाम-स्थापना-द्रव्य-भावतः।
न्यस्यमानतयादेशात् प्रत्येकं स्युश्चतुर्विधाः॥9॥ अर्थ-उपर्युक्त प्रत्येक तत्त्व के चार-चार प्रकार से भेद किये जाते हैं : 1. नाम, 2.स्थापना, 3. द्रव्य, 4. भाव, ये चार उन भेदों के नाम हैं। पहले तीन भेदों के विषय सामान्य रहते हैं, इसलिए वे द्रव्यार्थिक नयाधीन भेद हैं। चौथा भाव भेद विशेष विषय को समझाता है, इसलिए उसे पर्यायार्थिक नयाधीन मानते हैं। इन्हीं भेदों के न्यास और निक्षेप, ये दो नाम और भी हैं।
भावार्थ-बोलनेवाले के मुख से एक ही प्रकार के निकले हुए शब्द भी अपेक्षावश अलग-अलग अर्थों को दिखाते हैं, उन अर्थों के सामान्य प्रकार चार किये जा सकते हैं। वे चार प्रकार हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव शब्दों से प्रकट होने वाले अर्थों के जैसे ये चार प्रकार हो सकते हैं वैसे ही शब्दों के भी ये चार भेद किये जा सकते हैं। शब्दों के भेदों को न्यास या निक्षेप कहते हैं और अर्थभेदों को न्यस्यमान या निक्षिप्यमाण विषय कहते हैं। ये भेद क्रियापदों में नहीं होते, किन्तु नाम शब्दों में होते हैं। क्रियापदों के
1. "एवमेषामुद्दिष्टानां सम्यग्दर्शनादीनां जीवादीनां च संव्यवहारविशेषव्यभिचारनिवृत्त्यर्थमाह" सर्वा.सि., वृ.21 ॥ "एवं
संज्ञास्वालक्षण्यादिभिरुद्दिष्टानां संव्यवहारविशेषव्यभिचारनिवृत्त्यर्थमाह-रा.वा., 1/5 ।। अर्थात् जीवादि व सम्यग्दर्शनादिकों का जो नामोच्चारण किया है उसका अर्थ अनेक प्रकार से हो सकता है, परन्तु प्रयोजन की सिद्धि जिससे हो सके वह अर्थ छाँटकर ले लेना चाहिए, इसलिए प्रयोजन व व्यवहार के अनुसार शब्दों का अर्थ कितने प्रकार से हो सकता है यह बात दिखाते हैं।" 2. सन्त्यमी पाठान्तरम्। 3. एवं निक्षेपविधिना शब्दार्थः प्रस्तीर्यते।-सर्वा.सि., वृ.22
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