Book Title: Tattvartha Sara
Author(s): Amitsagar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 357
________________ सातवाँ अधिकार :: 299 दूसरे लोग ध्यान की सिद्धि के उपाय यम, नियम, प्राणायाम इत्यादि को बताते हैं,परन्तु जैनसिद्धान्तानुसार यम, नियमादि का निषेध नहीं है तो भी ध्यान सिद्धि के मुख्य उपाय गुप्ति, समिति आदिक हैं। गुप्ति, समिति आदि का स्वरूप पहले कहा जा चुका है। इन्हें पहले कहने का हेतु ही यह है कि वे गुप्त्यादि सध जाएँ तब ध्यान सिद्ध हो सके। ___ यहाँ पर प्रकरण मोक्षमार्ग का होने से शुभध्यानों के कहने की मुख्यता है, इसलिए आनुषंगिक आर्त, रौद्र रूप अशुभ ध्यानों को नाममात्र गिनाकर शुभ ध्यानों के लक्षण बताते हैं। धर्मध्यान का स्वरूप व भेद आज्ञापाय-विपाकानां विवेकाय च संस्थितेः। मनसः प्रणिधानं यद् धर्म्यध्यानं तदुच्यते॥39॥ अर्थ-धर्मयुक्त मन की एकाग्रता को धर्म्यध्यान' कहते हैं। विवेक, विचार, विचिति, विचय; इन शब्दों का अर्थ एक ही है। वह है- विचार करना। आज्ञा का, अपाय का, विपाक और संस्थान का विचार करने के लिए धर्म्यध्यान में मन की एकाग्रता होती है। आज्ञादि विचय चार होने से धर्म्यध्यान के चार भेद हो जाते हैं। आज्ञाविचय का स्वरूप प्रमाणीकृत्य सार्वज्ञीमाज्ञामर्थावधारणम्। गहनानां पदार्थानामाज्ञाविचयमुच्यते॥40॥ __ अर्थ-सर्वज्ञ की आज्ञा को प्रमाण मानकर गहन सूक्ष्म पदार्थों का निश्चित करना अर्थात् श्रद्धान करना-यह आज्ञाविचय धर्म्यध्यान है। 1. इस ध्यान के पहले भेद को आज्ञाविचय धर्म्यध्यान कहते हैं। आगम को प्रमाण मानकर अर्थ का निश्चय करना आज्ञाविचय है। यह तब होता है जब कि अपना ज्ञान मन्द हो और उपदेशक कोई दिखता न हो, पदार्थ अतिसूक्ष्म होने से वहाँ पर हेतु तथा दृष्टान्त का मिलना कठिन हो गया हो। उस समय सर्वज्ञप्रणीत मार्ग को प्रमाण मानकर दृढ़ निश्चय करना आज्ञाविचय' है। यह आज्ञाविचय अथवा आज्ञाविचार बराबर कुछ देर तक चलता रहे तो एकाग्रचिन्तानिरोध हो जाने से ध्यान कहा जाता है। अथवा स्वयं को सर्वज्ञ की आज्ञा और मार्ग ज्ञात है, परन्तु जो उस आज्ञा को न स्वीकार करता हो उसे कथामार्ग के आश्रय से तर्क, हेतु, दृष्टान्त, नय, प्रमाण आदि के द्वारा सिद्ध करके बताना और लोगों में उस आज्ञा का प्रकाश तथा सत्यपना प्रसिद्ध करना-यह भी आज्ञाविचय धर्म्यध्यान का ही अर्थ है। 1. धर्मादनपेतं धर्म्यम्। रा.वा., 9/28, वा. 3। 2. विचयस्तत्र मीमांसा प्रमाणनयतः स्थितः । तस्मिश्चिन्ताप्रबन्धोऽनुश्चिन्तान्तरनिरोधतः । (श्लोकवा.) 3. तदर्थम् (आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयार्थम्) आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय धर्म्यम्। रा.वा., 9/36, वा. 2। 4. तत्रागमप्रामाण्यादर्थावधारमाज्ञाविचयः।-रा. वा., 9/36, वा. 4। 5. अथवा विदितस्वपरसमयपदार्थनिर्णयस्य अन्यं प्रतिपादयिषस्तत्समर्थनार्थं तर्कनयप्रमाणयोजनपरः स्मृतिसमन्वाहारः, सार्वज्ञ-ज्ञानप्रकाशनार्थत्वादाज्ञाविचयः।-रा. वा., 9/36, वा. 51 6. तत्राज्ञा द्विविधा हेतुवादेतरविकल्पतः। सर्वज्ञस्य विनेयान्त:करणायत्तवृत्तयः। श्लो.वा., भा. 7, अ. 9, श्लो. 2 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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