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318 :: तत्त्वार्थसार
इसीलिए शीतोष्णता का होना उपाधि के अधीन है। इस प्रकार आत्मा में संकोच, विस्तार का होना उपाधि के अधीन है। जो बातें उपाधिजन्य होती हैं उनमें से उपाधि हटने पर एक भी बात नहीं होती।
ऐसे उपाधिजन्य परस्पर विरोधी अनेक कार्यों में से कहीं पर तो कोई एक धर्म वस्तु में रहता है और शेष उपाधि मिलने पर होते हैं, नहीं तो नहीं। जैसी जल की उष्णता उपाधिजन्य है और शीतलता मूल का ही धर्म है। अथवा प्रकाश का विस्तार होना मूल से ही है और संकोच होना पराश्रित है। एवं कहीं-कहीं पर ऐसे दो धर्मों में से एक भी मूल वस्तु का नहीं होता। जैसे स्फटिक में हरे, पीले, लाल आदि जो कुछ रंग दिख पड़ते हैं वे सभी उपाधिजन्य होते हैं। अथवा दर्पण में जितने प्रकार की छाया पड़ती हैं वे सब उपाधिजन्य होती हैं। एक भी प्रतिबिम्ब स्वाभाविक नहीं होता। इस प्रकार परस्पर विरोधी
दो प्रकार हैं कि कोई तो ऐसे कि उनमें से एक मल का. बाकी उपाधिजन्य और कोई ऐसे कि अनेकों में से सभी उपाधिजन्य। आत्मा के जो संकोच विस्तार धर्म हैं वे सभी उपाधिजन्य हैं। उन दोनों में से मूल का एक भी धर्म नहीं है, इसीलिए इसके लिए जो दीप का प्रकाश दृष्टान्त बताया है वह एकदेशी दृष्टान्त समझना चाहिए।
शरीर सम्बन्ध छूटने पर आत्मा का संकोच विस्तार न होने के विषय में गीले कपड़े का दृष्टान्त भी दिया जाता है। गीले कपड़े को कोई संकोचना चाहे तो संकुचित भी हो जाता है और विस्तारना चाहे तो विस्तार भी हो जाता है, परन्तु जितने विस्तार या संकोच की दशा में उसे छोड़ दिया जाए उससे अधिक अपने आप न संकोच ही होता है और न विस्तार ही। उसी प्रकार आत्मा शरीर सम्बन्धों द्वारा संकुचित भी होता है और विस्तृत भी होता है, परन्तु शरीर सम्बन्ध छूटने पर वह न अधिक संकुचित ही होता है और न विस्तृत ही होता है।
मुक्त जीव ऊर्ध्वगमन करते हैं
कस्यचिच्छंखला मोक्षे तत्रावस्थानदर्शनात्।
अवस्थानं न मुक्तानामूर्ध्वं व्रज्यात्मकत्वतः॥19॥ __ अर्थ-जड़ पदार्थ कुछ ऐसे होते हैं कि साँकल, रस्सी आदि के बन्धन जो पहले थे उनके छूट जाने पर वे ज्यों-के-त्यों पड़े रहते हैं, परन्तु यह बात जीवों में नहीं है। जीव प्रत्येक बात में पुद्गल से प्रायः उलटे स्वभाववाला है। पुद्गल मूर्तिक है तो जीव अमूर्तिक हैं। पुद्गल जड़ है तो जीव चेतन है। पुद्गल के तिरछे व ऊर्ध्वगमन स्वभाव भी हैं, परन्तु एक-एक पर्यायगत वे सब स्वभाव हैं। यथार्थ में गुरुत्व धर्म के होने से पुद्गल का अधोगमन स्वभाव है। ठीक उससे उलटा जीव का ऊर्ध्वगमन स्वभाव है। पुद्गल के वायु, अग्नि आदि पर्यायों में सम्बन्ध विशेष से इधर-उधर गमन होता है, परन्तु उपाधिजन्य है। उसी प्रकार जीव के संसार अवस्था में जो गमन होते हैं वे भी उपाधिजन्य होते हैं। जीव में उपाधि कर्म होता है और पुद्गल में आपस के ही दूसरे पुद्गल बन्धन की विचित्रता करके उपाधिरूप बन जाते हैं। उपाधि रहित होने पर मुक्तजीव स्वभावतः ऊर्ध्वगमन करते हैं और लोक के अन्तभाग में पहुंचकर अनन्तकाल के लिए वहीं स्थिर हो जाते हैं।
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