________________
328 :: तत्त्वार्थसार
उत्सर्पिणी में बहुत थोड़े जीव सिद्ध होते हैं। अवसर्पिणी में कुछ अधिक सिद्ध होते हैं। जहाँ उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी का भेद नहीं है, वहाँ के काल में बहुत अधिक जीव सिद्ध होते हैं। लिंग की अपेक्षा जो सिद्ध होना माना गया है उसका अल्पबहुत्व नपुंसक, स्त्री तथा पुरुष वेद का उत्तरोत्तर संख्यात गुणा है। गति की अपेक्षा से देखें तो देवगति से मनुष्य होनेवाले जो सिद्ध होते हैं वे सबसे अधिक होते हैं। नरक गतिवाले संख्यातगुणे कम होते हैं। तिर्यंच गतिवाले भी संख्यातगुणे कम होते हैं। इसी प्रकार आगमानुसार सर्वत्र हीनाधिकता समझ लेनी चाहिए।
(12) जिस काल में कोई भी जीव सिद्ध न हो उस काल को अन्तरकाल अथवा विरहकाल कहते हैं। यह नियम है कि आठ समय अधिक, छह महिनों के भीतर छह सौ आठ जीव मुक्त होते हैं । निरन्तर सिद्ध होना यदि बहुत शीघ्र बन्द पड़ जाए तो दो समय के बाद ही पड़ सकता है। यदि बहुत अधिक भी बराबर जीव सिद्ध होते हैं तो आठ समय तक होंगे। बाद में अवश्य ही थोडे बहुत समय तक अन्तर पड़ेगा। वह अन्तर बहुत थोड़ा हो तो एक ही समय हो। बाद में फिर से जीव सिद्ध होने लगेंगे। यदि बहुत ही अन्तर पड़ा तो छह महीने का पड़ सकता है। बाद में अवश्य ही सिद्ध होने लगेंगे। इस प्रकार निरन्तर तथा सान्तर मिलाकर छह महीने आठ समय में छह सौ आठ जीव मुक्त हो जाते हैं। इसके द्वारा सिद्धों में अन्तर इस प्रकार से देखना चाहिए कि कौन-सा जीव तो सान्तर सिद्ध हुआ है और कौनसा निरन्तर सिद्ध हुआ है। ऐसा देखने से भी परस्पर में सिद्धों का कुछ भेद सिद्ध हो जाता है, परन्तु ये सब भेद उपचरित हैं। उनके गुणस्वभावों में परस्पर कोई भी भेद नहीं है।
गुण-स्वभावों की अपेक्षा सिद्धों की समानता
तादात्म्यादुपयुक्तास्ते केवलज्ञान-दर्शने।
सम्यक्त्व-सिद्धतावस्था हेत्वभावाच्च निष्क्रियाः॥ 43॥ अर्थ-केवलज्ञान में, केवलदर्शन में तथा केवलसम्यक्त्व में सिद्ध भगवान् तन्मय होकर रहते हैं और उनकी पर्याय कर्मकलंकों से सर्वथा मुक्त होने के कारण पूर्ण सिद्ध पर्याय कहलाती है। यद्यपि शरीर से छूटने पर ऊर्ध्वलोक की तरफ वे लोक के अन्त पर्यंत गमन करते हैं। उससे ऊपर नहीं जाते। क्योंकि, लोक के ऊपर गमन होने का साधन नहीं रहता है, इसलिए सिद्ध गति में पहुँचकर वे निष्क्रिय' होकर ठहरते हैं।
अलोक में गमन न होने का कारण
ततोऽप्यूर्ध्वगतिस्तेषां कस्मान्नास्तीति चेन्मतिः।
धर्मास्तिकायस्याभावात् स हि हेतुर्गतेः परम्॥44॥ अर्थ-सिद्ध जीव जिस प्रकार लोकपर्यन्त ऊर्ध्वगमन करते हैं उसी प्रकार आगे और ऊपर क्यों नहीं जाते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर इतना ही है कि ऊपर धर्मास्तिकाय नाम का द्रव्य नहीं है। धर्मास्तिकाय ही गति होने में प्रधान सहकारी कारण होता है। वह लोक भर में व्याप्त है, इसके बाद नहीं है।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org