Book Title: Tattvartha Sara
Author(s): Amitsagar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 392
________________ 334 :: तत्त्वार्थसार अर्थ-आत्मा में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र भेद की मुख्यता से प्रकट हो रहा हो उस सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय को व्यवहार मोक्षमार्ग समझना चाहिए। अर्थात् उसी एक तत्त्व का व्यवहार रत्नत्रय में भी प्रकाश होता है और उसी का निश्चय रत्नत्रय में भी प्रकाश होता है परन्तु जबतक भेदरूप से होता है तब तक उसे व्यवहाररूप कहते हैं। जब वह अभेदरूप से होता है तब उसे निश्चयरूप कहा जाता है। व्यवहारावलम्बी की प्रवृत्ति श्रद्धानः परद्रव्यं बुध्यमानः तदेव हि। तदेवोपेक्षमाणश्च व्यवहारी स्मृतो मुनिः॥5॥ अर्थ-जो सातों तत्त्वों का भेदरूप से श्रद्धान करता है और वैसे ही भेदरूप से उसे जानता है तथा वैसे ही भेदरूप से उसे उपेक्षित करता है, उसे व्यवहारावलम्बी मुनि कहते हैं। निश्चयावलम्बी का स्वरूप स्वद्रव्यं श्रद्धानस्तु बुध्यमानः तदेव हि। तदेवोपेक्षमाणश्च निश्चयान्मुनिसत्तमः॥6॥ अर्थ-जो श्रद्धानमय आत्मा को बना लेता है और ज्ञानमय भी आत्मा को ही बना लेता है अथवा ज्ञान ही ज्ञानरूप जिसे आत्मा भासने लगता है; एवं उपेक्षा रूप ही जिसके आत्मा की प्रवृत्ति हो जाती है वह श्रेष्ठ मुनि निश्चयावलम्बी, निश्चयरत्नत्रययुक्त माना जाता है। निश्चयी का अभेद समर्थन आत्मा ज्ञातृतया ज्ञानं सम्यक्त्वं चरितं हि सः। स्वस्थो दर्शन-चारित्रमोहाभ्यामनुपप्लुतः॥7॥ अर्थ-जो जानता है वह आत्मा है। जानता है ज्ञान, इसलिए ज्ञान ही आत्मा है। इसी प्रकार जो सम्यक् श्रद्धान करता है वह श्रद्धानी या आत्मा कहलाता है। श्रद्धान करता है सम्यग्दर्शन, इसलिए वही श्रद्धानी है, वही आत्मा है। जो उपेक्षित होता है वह आत्मा है। उपेक्षित होता है उपेक्षागुण, इसलिए वही आत्मा है अथवा वह आत्मा ही है। यह अभेदरूप रत्नत्रय का स्वरूप है। ऐसी अभेदरूप स्वस्थ दशा उसी तपस्वी की हो सकती जो दर्शनमोहनीय तथा चारित्रमोहनीय के उदयाधीन नहीं रहता है। इसका तात्पर्य यह है कि मोक्ष का कारण रत्नत्रय को बताया है। उन रत्नत्रय को मोक्ष का कारण मानकर उसी के स्वरूप को जानने की जब तक इच्छा रहती है तब तक साधु उस रत्नत्रय को विषयरूप मानकर उसी का चिन्तवन करता है। जब तक ऐसी दशा रहती है तब तक अपने विचार से रत्नत्रय भेदरूप ही जान पड़ता है। इसीलिए इस साधु के उस प्रयत्न को भेदरूप रत्नत्रय कहते हैं। वह व्यवहार की दशा है। ऐसी दशा में रत्नत्रय का अभेदरूप नहीं हो सकता है, परन्तु ऐसी दशा जब तक न हो अथवा इस प्रकार जब तक साधु व्यवहार रत्नत्रय को समझ न ले तब तक रत्नत्रयमय निश्चय दशा कैसे प्राप्त Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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