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आत्मा, रत्नत्रय - रूप अधिकरण के साथ अभेद
यस्मिन् पश्यति जानाति स्वस्वरूपे चरत्यपि । दर्शन - ज्ञान - चारित्र - त्रयमात्मैव तन्मयः ॥ 14 ॥
अर्थ - जिस निज स्वरूप में देखता है, जिस निज स्वरूप में जानता है और जिस निज स्वरूप स्थिर होता है वही दर्शनज्ञानचारित्ररूप रत्नत्रय है । वह आत्मा से कोई भिन्न चीज नहीं है, किन्तु आत्मा ही तन्मय होता है ।
आत्मा, रत्नत्रय - रूप क्रिया के साथ अभेद
ये स्वभावाद् दृशि -ज्ञप्ति-चर्यारूपक्रियात्मकाः । दर्शन - ज्ञान - चारित्र - त्रयमात्मैव तन्मयः ॥ 15 ॥
अर्थ- जो देखनरूप, जाननरूप और चारित्ररूप क्रियाएँ होती हैं वही दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप रत्नत्रय है, वे क्रियाएँ आत्मा से जुदी चीज नहीं हैं । तत् तत् रूप आत्मा ही परिणत हुआ मानना चाहिए। अथवा आत्मा उनसे कोई निराली चीज नहीं है, तन्मय ही आत्मा है ।
आत्मा, रत्नत्रय - रूप गुण के साथ अभेद
दर्शन - ज्ञान - चारित्र - गुणानां य इहाश्रयः ।
दर्शन - ज्ञान - चारित्र - त्रयमात्मैव स स्मृतः ॥ 16 ॥
अर्थ – जो यहाँ पर दर्शनज्ञानचारित्र गुणों का आश्रय है, वही दर्शनज्ञानचारित्ररूप रत्नत्रय है। आत्मा
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से दर्शनादि गुण कोई जुदी चीज नहीं हैं, आत्मा ही तन्मय हुआ मानना चाहिए अथवा आत्मा तन्मय ही है ।
आत्मा, रत्नत्रय - रूप पर्यायों के साथ अभेद
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दर्शन - ज्ञान - चारित्र - पर्यायाणां य आश्रयः ।
दर्शन - ज्ञान - चारित्र - त्रयमात्मैव स स्मृतः ॥ 17 ॥
अर्थ - सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप पर्यायों का जो आश्रय होता है वही दर्शनज्ञानचारित्ररूप रत्नत्रय है । रत्नत्रय आत्मा से कोई जुदी चीज नहीं है। आत्मा ही तन्मय हुआ रहता है।
आत्मा, रत्नत्रय - रूप प्रदेश के साथ अभेद
नौवाँ अधिकार : : 337
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दर्शन - ज्ञान - चारित्र - प्रदेशा ये प्ररूपिताः ।
दर्शन - ज्ञान - चारित्रमयस्यात्मन एव ते ॥ 18 ॥
अर्थ-दर्शन के, ज्ञान के, चारित्र के जो प्रदेश बताये गये हैं आत्मा के प्रदेशों से कोई भिन्न नहीं है। दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप आत्मा के ही वे प्रदेश हैं । अथवा दर्शन, ज्ञान, चारित्र के प्रदेशरूप ही आत्मा है और वही रत्नत्रय है । जिस प्रकार आत्मा के प्रदेश और रत्नत्रय के प्रदेश भिन्न-भिन्न नहीं हैं, उसी
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