Book Title: Tattvartha Sara
Author(s): Amitsagar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 394
________________ 336 :: तत्त्वार्थसार आत्मा, रत्नत्रय-रूप करण के साथ अभेद दृश्यते येन रूपेण ज्ञायते चर्यतेऽपि च। दर्शन-ज्ञान-चारित्र-त्रयमात्मैव तन्मयः॥10॥ अर्थ-जिस निज स्वरूप द्वारा देखा जाता है, जिस निज स्वरूप द्वारा जाना जाता है और जिस निज स्वरूप द्वारा स्थिरता होती है, वही दर्शन-ज्ञान-चारित्र नामवाला रत्नत्रय है। वह दूसरी कोई चीज नहीं है, किन्तु तन्मय आत्मा ही है। अथवा आत्मा उस रत्नत्रय से जुदा नहीं है, किन्तु तन्मय ही है। आत्मा, रत्नत्रय-रूप सम्प्रदान के साथ अभेद यस्मै पश्यति जानाति स्वरूपाय चरत्यपि। दर्शन-ज्ञान-चारित्र-त्रयमात्मैव तन्मयः॥11॥ अर्थ-आत्मा अपने जिस निज स्वरूप के लिए देखता है, जानता है और आचरण करता है, वही दर्शन-ज्ञान और चारित्र है। आत्मा इन तीनों स्वरूप ही है। आत्मा, रत्नत्रय-रूप अपादान के साथ अभेद यस्मात्पश्यति जानाति स्वस्वरूपाच्चरत्यपि। दर्शन-ज्ञान-चारित्र-त्रयमात्मैव तन्मयः॥12॥ अर्थ-जिस निज स्वरूप से देखता है,जिस निज स्वरूप से जानता है और जिस निज स्वरूप से प्रवर्तता है वही दर्शन-ज्ञान-चारित्रस्वरूप रत्नत्रय है। वह दूसरा कुछ नहीं है, किन्तु तन्मय हुआ आत्मा ही है। आत्मा, रत्नत्रय-रूप सम्बन्ध के साथ अभेद यस्य पश्यति जानाति स्वरूपस्य चरत्यपि। दर्शन-ज्ञान-चारित्र-त्रयमात्मैव तन्मयः॥13॥ अर्थ-जिस निज स्वरूप के सम्बन्ध को देखता है, जिस निज स्वरूप के सम्बन्ध को जानता है और जिस निज स्वरूप के सम्बन्ध की प्रवृत्ति करता है वही दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय है, परन्तु वह आत्मा के अतिरिक्त कोई दूसरी चीज नहीं है। आत्मा ही तन्मय होता है। 1. अपादान वहाँ पर कहा जाता है जहाँ पर कि कोई कर्म किसी जगह से हटकर करना हो। जहाँ से हटना होता है उसी को अपादान कहते हैं, जब कि देखने जानने आदि का ही नाम दर्शन-ज्ञान-चारित्र है तो वहाँ पर देखने आदि का स्वयं हटाना कैसे सम्भव हो सकता है ? और जिससे हटना माना जाएगा वह चीज दर्शनादिरूप नहीं कही जा सकेगी। इसलिए अपादान का स्वरूप यहाँ कैसे सम्भव हो सकता है? इस का उत्तर यह है कि कारकों की कल्पना विवक्षाधीन होती है। ऐसा कहा भी है कि "विवक्षाधीना हि कारकप्रवृत्तिः । अब रही बात यह कि यहाँ विश्लेष कैसे सम्भव हो सकता है? इस का उत्तर भी यही है कि भेद की विवक्षा बुद्धि द्वारा ही सिद्ध हो जाती है। जैसे सर्प से डरते समय बुद्धि में ही विश्लेष हो जाता है वैसे ही यहाँ पर भी पदार्थ पदार्थ का विश्लेष नहीं, किन्तु बुद्धि का विश्लेष है। दूसरी बात यह भी है कि ल्यबन्त शब्द का यहाँ अध्याहार माना जाए तो बिना विश्लेष के भी अपादानता सिद्ध हो जाती है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410