Book Title: Tattvartha Sara
Author(s): Amitsagar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 396
________________ 338 :: तत्त्वार्थसार प्रकार परस्पर में भी दर्शनादि के प्रदेश जुदे-जुदे नहीं हैं, इसीलिए आत्मा और रत्नत्रय परस्पर में भिन्नभिन्न नहीं हैं, किन्तु आत्मा तन्मय है। आत्मा, रत्नत्रय-रूप अगुरुलघु के साथ अभेद दर्शन-ज्ञान-चारित्रागुरुलध्वा हि या गुणाः। दर्शन-ज्ञान-चारित्रमयस्यात्मन एव ते॥19॥ अर्थ-अगुरुलघु नाम गुण के रहने से वस्तु के भीतर जितने गुण होते हैं वे सीमा से अधिक अपनी हानि तथा वृद्धि नहीं कर पाते हैं। यही अगुरुलघु गुण का प्रत्येक द्रव्य में प्रयोजन रहता है। उस गुण के निमित्त से जो यावत् गुणों में सीमा का उल्लंघन नहीं होता उसको भी अगुरुलघु ही कहते हैं, इसलिए यहाँ पर अगुरुलघु को दर्शनादिकों का विशेषण कहना चाहिए। अर्थात्, अगुरुलघुरूप प्राप्त होनेवाले जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र हैं वे आत्मा से जुदे नहीं हैं और परस्पर में भी जुदे-जुदे नहीं हैं, किन्तु दर्शनज्ञानचारित्ररूप जो रत्नत्रय है उसी के वे स्वरूप हैं और तन्मय ही हैं। उसी अगुरुलघुरूप रत्नत्रयमय आत्मा है। क्योंकि, आत्मा के वे अगुरुलघुस्वभाव हैं और आत्मा रत्नत्रयस्वरूप है, इसलिए आत्मा से वे सब अभिन्न हैं। आत्मा, रत्नत्रय-रूप उत्पाद-व्यय-धौव्य के साथ अभेद दर्शन-ज्ञान-चारित्र धौव्योत्पादव्ययास्तु ये। दर्शन-ज्ञान-चारित्रमयस्यात्मन एव ते॥20॥ अर्थ-दर्शनज्ञानचारित्र में जो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य होते हैं वे सब आत्मा के ही हैं। क्योंकि दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप जो रत्नत्रय है वह आत्मा से भिन्न नहीं है। दर्शन-ज्ञान-चारित्रमय ही आत्मा है। अथवा दर्शनज्ञानचारित्र आत्मामय ही है, इसलिए जो रत्नत्रय के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य हैं वे उत्पादव्ययध्रौव्य भी आत्मा के ही हैं और परस्पर में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य भी अभिन्न ही हैं। जब कि रत्नत्रय के जितने विशेषण हैं वे सभी आत्मा के हैं और आत्मा से अभिन्न हैं तो रत्नत्रय को भी आत्मस्वरूप ही मानना चाहिए। ___ इस प्रकार अभेदरूप से जो निजात्मा के दर्शन, ज्ञान, चरित्र होते हैं वे निश्चय रत्नत्रय हैं। उनके समुदाय को निश्चय मोक्षमार्ग कहते हैं। इसी मोक्षमार्ग को तथा इसी रत्नत्रय को कर्ता, कर्मादि भेदपूर्वक माना जाए तो व्यवहार रूप हो जाते हैं। इसलिए ऊपर के जितने श्लोक निश्चय रत्नत्रय को दिखानेवाले हैं वे व्यवहार को भी दिखाते हैं। आत्मा में निश्चय, व्यवहार रत्नत्रय मानने का तात्पर्य (शालिनी-छन्द) स्यात् सम्यक्त्व-ज्ञान-चारित्ररूपः पर्यायादेशतो मुक्तिमार्गः। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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