Book Title: Tattvartha Sara
Author(s): Amitsagar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 387
________________ सिद्धों का सुख प्रश्न संसारविषयातीतं सिद्धानामव्ययं सुखम् । अव्याबाधमिति प्रोक्तं परमं परमर्षिभिः ॥ 45 ॥ अर्थ - सिद्ध जीवों को वह सुख प्राप्त होता है जो संसार में रहनेवाले को विषयों के द्वारा कभी प्राप्त न हुआ हो। वह सुख स्वाधीन होता है, इसीलिए उसका कभी उच्छेद नहीं होता है। उस अविनाशी सुख को परम अव्याबाध कहते हैं। सिद्धों में वेदनीय कर्मोदयजन्य बाधा का अभाव होने से जो अविनाशी, अनन्त, निराकुलता उत्पन्न होती है उसे अव्याबाध कहते हैं । स्यादेतदशरीरस्य जन्तोर्नष्टाष्टकर्मणः । कथं भवति मुक्तस्य सुखमित्युत्तरं शृणु ॥ 46 ॥ अर्थ- सुख का साधन शरीर है। सिद्ध जीव में शरीर का भी उच्छेद हो जाता है और उसके कारणभूत अष्ट कर्मों का भी अभाव जो जाता है। ऐसी अवस्था में मुक्त जीव को सुख क्या होगायह समझ में नहीं आता ? इस प्रश्न का उत्तर सुनो सुख शब्द का अर्थ लोके चतुर्विहार्थेषु सुखशब्दः प्रयुज्यते । विषये वेदनाभावे विपाके मोक्ष एव च ॥ 47 ॥ अर्थ-जगत् में सुख शब्द के चार अर्थ माने जाते हैं: (1) विषय, (2) वेदना का अभाव, (3) पुण्यकर्म का फल प्राप्त होना, (4) मुक्त हो जाना । विषय का दृष्टान्त आठवाँ अधिकार : 329 सुखो वहिः सुखो वायुर्विषयेष्विह कथ्यते । अर्थ - शीत ऋतु में अग्नि का स्पर्श सुखकर होता है। ग्रीष्म ऋतु में ठंडी हवा का स्पर्श सुखकर होता है इत्यादि आभिमानिक (काल्पनिक) सुख के साधनों को यहाँ सुख कहा है। अर्थात् सुख के कारण में कार्य का उपचार किया है। यह सुख शब्द का एक अर्थ हुआ । वेदना अभाव का दृष्टान्त Jain Educationa International दुःखाभावे च पुरुषः सुखितोऽस्मीति भाषते ॥ 48 ॥ अर्थ - पहले तो किसी प्रकार दुःख अथवा क्लेश हो रहा हो और फिर उस दुःख का - उस क्लेश 1. अथवा योग के परिस्पन्दन को भी क्रिया कहते हैं । उस क्रिया का वहाँ कोई साधक कारण न होने से सिद्ध जीव निष्क्रिय हो जाते हैं। For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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