Book Title: Tattvartha Sara
Author(s): Amitsagar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 375
________________ आठवाँ अधिकार :: 317 शरीराकार होने का दृष्टान्त शराव-चन्द्रशालादि-द्रव्यावष्टम्भयोगतः।। अल्पो महांश्च दीपस्य प्रकाशो जायते यथा। 17॥ अर्थ-शकोरा, चन्द्रशाला, घट, मकान-इत्यादि जैसे आवरण करनेवाले छोटे, बड़े द्रव्य का सम्बन्ध होता है, दीपक वैसा ही अपने प्रकाश को संकुचित तथा विस्तृत बनाकर रहने लगता है। जब जिसके भीतर वह दीपक रहता है उस समय उस द्रव्य के बाहर अपना प्रकाश नहीं ले जाता, किन्तु उसी के भीतर समाकर रहता है। अपने प्रकाश को भी उसी के भीतर रखता है। इस दृष्टान्त का उपसंहार संहारे च विसर्पे च तथात्मानात्मयोगतः। तदभावात्तु मुक्तस्य न संहारविसर्पणे॥18॥ अर्थ-जिस प्रकार आवरणवश दीप के प्रकाश का संकोच और विस्तार है उसी प्रकार कर्म व शरीर के बन्धन से पराधीन हुआ जीव तदनुसार संकोच तथा विस्तार को प्राप्त होता रहता है। पराधीनता के कारण जब नहीं रहते हैं, तब न संकोच होता है न विस्तार होता है। अब रही यह बात कि जिस प्रकार आवरण-द्रव्य का अभाव होने पर दीपक का प्रकाश अन्तिम आवरण की मर्यादा से अधिक पसर जाता है उसी प्रकार शरीरादि बन्धनों का अभाव होने पर आत्मा लोकाकाश के बराबर अपने सब प्रदेशों का विस्तार क्यों नहीं करता है? इसका उत्तर एक तो यह है कि दृष्टान्त के सब गुणधर्मों की दार्टान्त में तुलना नहीं होती है। यदि सब गुणधर्म दोनों के एक से ही हों तो एक को दृष्टान्त और दूसरे को दार्टान्त कौन कहे? दूसरा, इसी से मिलता हआ उत्तर यह भी है कि दीपक के प्रकाश का पसरने का स्वभाव तो स्वयं है और संकोच होना पराधीन है, इसलिए आवरणों के वश वह रुकता है और आवरण हटने पर पसर जाता है। आत्मा में यह बात नहीं है। आत्मा में न संकोच होने का ही धर्म स्वभावरूप है और न पसरना ही स्वभाव है। दीपक से इसके स्वभाव में इतना अन्तर होने का कारण मूर्तिकता व अमूर्तिकता हो सकता है। दूसरा यह भी कारण हो सकता है कि दीपक के और प्रकाश के प्रदेश तो भिन्न-भिन्न हैं । शब्द से शब्दान्तर होने की तरह प्रकाश से प्रकाशान्तर उत्पन्न होता हुआ कुछ दूर तक पसरता है। वह उत्पत्ति आवरण के होते हुए मर्यादित क्षेत्र में होती है और आवरण न हो तो जहाँ तक हो सके वहाँ तक होती है। आत्मा में यह बात नहीं है। आत्मा में जो कुछ पसरना है या संकुचित होना है वह उसी के प्रदेशों का है, इसलिए जब संकोचक निमित्त मिलते हैं तब उसका संकोच होता है और जब विस्तार के निमित्त मिलते हैं तब उसका विस्तार होता है। संकोच और विस्तार परस्पर में विरोधी स्वभाव एक वस्तु में एक साथ नहीं रह सकते हैं। विरोधी धर्मों के प्रकट करने का कारण केवल वह पदार्थ नहीं हो सकता जिसमें कि वे विरोधी धर्म रहते हों, किन्तु उनके प्रकट करने का कारण परवस्तु हुआ करता है जिसे उपाधि कह सकते हैं। जिस प्रकार कि जल में शीतलता और उष्णता के उत्पादक कारण सूर्य परिभ्रमण के द्वारा होनेवाले ऋतु आदि होते हैं, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410