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320 :: तत्त्वार्थसार
परमैश्वर्य के चिह्न
शेषकर्मफलापेक्षः शुद्धो बुद्धो निरामयः।
सर्वज्ञः सर्वदर्शी च जिनो भवति केवली॥25॥ अर्थ-चारों घातिकर्मों का नाश हो जाने से वे योगी सर्वथा शुद्ध हो जाते हैं, बुद्ध कहलाने लगते हैं। सर्व आधि, व्याधियों से मुक्त हो जाते हैं, अर्थात् अठारह दोषों से रहित हो जाते हैं, इसलिए निर्दोष कहलाने लगते हैं। सर्वज्ञाता, सर्वद्रष्टा, केवली, जिन इत्यादि परमेश्वरता के सूचक अनन्त गुण प्रकट हो जाते हैं। इतने गुण प्रकट होने पर भी अघाति कर्मों के फलानुसार शरीर सहित रहना पड़ता है। इसी को जीवन्मुक्त अवस्था कहते हैं। निर्वाण-प्राप्ति
कृत्स्नकर्मक्षयादूर्ध्वं निर्वाणमधिगच्छति। अर्थ-शेष रहे हुए अघाति कर्मों का जब पूरा नाश हो जाता है तब जीवात्मा शरीर छोड़कर निर्वाण को प्राप्त हो जाता है।
दृष्टान्त
यथा दग्धेन्धनो वह्निर्निरुपादानसन्ततिः॥26॥ अर्थ-जैसे संगृहीत ईंधन को जलाकर अग्नि शान्त हो जाती है। जब ज्वाला बढ़ने का कारण ईंधन रहेगा ही नहीं तो ज्वाला उठेगी और भड़केगी कहाँ से? इसी प्रकार बन्धन का, भड़काने का या उद्विग्नता का कारण कर्म है। वह जब नष्ट हो चुका तब जीव का निर्वाण होना ही समय प्राप्त है।
तदनन्तरमेवोर्ध्वमालोकान्तात् स गच्छति।
पूर्वप्रयोगासंगत्वाद् बन्धच्छेदोर्ध्वगौरवैः॥27॥ अर्थ-निर्वाण होते ही जीव ऊपर की तरफ लोकाकाश पर्यन्त गमन कर जाता है। इस गमन के हेतु चार हैं : (1) पूर्वप्रयोग, (2) असंगता, (3) बन्धच्छेद, (4) ऊर्ध्वगमन स्वभाव अथवा ऊर्ध्वगौरव धर्म।
पूर्वप्रयोग हेतु का स्वरूप और दृष्टान्त
कुलालचक्रं दोलायामिषौ चापि यथेष्यते।
पूर्वप्रयोगात्कर्मेह तथा सिद्धगतिः स्मृता॥28॥ अर्थ-कुलाल चक्र को एक बार फिरा देता है, बाद में लकड़ी हटा लेने पर भी पूर्वप्रयोगवश वह चक्र फिरता रहता है अथवा बाण छोड़ते समय एक बार छोड़ने की क्रिया करनी पड़ती है, बाद में वेग
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