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322 :: तत्त्वार्थसार
जीव, पुद्गलों के गति भेद का हेतु
ऊर्ध्व-गौरव-धर्माणो जीवा इति जिनोत्तमैः।
अधो-गौरव-धर्माणः पुद्गला इति चोदितम्॥32॥ अर्थ-कुछ लोग गुरुत्व शब्द का अर्थ ऐसा करते हैं जो नीचे की ओर जाता है वह गुरुत्व धर्म है, परन्तु इसका अर्थ करना चाहिए जो किसी तरफ किसी चीज को ले जाए वह गुरुत्व है। वह चाहे नीचे की तरफ ले जानेवाला हो अथवा ऊपर की तरफ। नीचे की तरफ ले जाने का सामर्थ्य तथा ऊपर की तरफ ले जाने का सामर्थ्य इत्यादि उसी गुरुत्व के उत्तर भेद हो सकते हैं। इन उत्तर भेदों में से पुद्गल अधोगुरुत्व धर्मवाले होते हैं और जीव ऊर्ध्वगुरुत्व वाले होते हैं। पुद्गलद्रव्य मात्र का यदि गुरुत्व धर्म देखना हो तो अधोगुरुत्व ही है। तिर्यग्गुरुत्व आदि जो वायु आदिकों में दिख पड़ता है वह भी पर्याय विशेषों का धर्म है, इसलिए पुद्गल का अर्थ यहाँ पर लोष्ठ पाषाणादि करने से वायु आदिकों में से दोष परिहार हो सकता है। अतः मानना चाहिए कि जिनेन्द्र भगवान ने जो गुरुत्व के उत्तर भेद किये हैं वे ठीक हैं।
जीव की नाना गतियों का हेतु
अतस्तु गतिवैकृत्यं तेषां यदुपलभ्यते।
कर्मणः प्रतिघाताच्च प्रयोगाच्च तदिष्यते॥33॥ अर्थ-ऊर्ध्वगमन जीव का स्वभाव होने से जो गति इस शुद्ध ऊर्ध्वगति से विकृत दिख पड़ती है वह सब कर्म की प्रेरणा से और कर्म के आघात से होनेवाली समझनी चाहिए।
प्रश्न-ऊर्ध्वगति के अतिरिक्त जो अधोगति अथवा तिर्यग्गति हैं वे तो कर्मजन्य हो सकती हैं, क्योंकि वे शुद्धगति से विरुद्ध हैं, परन्तु जो स्वर्गगामी संसारी जीवों का ऊर्ध्वगमन होता है, उसे विकृत गमन समझना चाहिए या शुद्ध?
उत्तर-शुद्ध उसे कहते हैं जो कि पर निमित्त के बिना ही हो और एक रूप ही सदा परिणमती हो। संसारी जीव की गति चाहे तिरछी हो चाहे ऊर्ध्व, परन्तु वह सभी कर्मजन्य होती है, इसलिए संसारी जीव की ऊर्ध्वगति को भी विकृत गति ही कहना चाहिए।
उपसंहार
अधस्तिर्यक् तथोर्ध्वं च जीवानां कर्मजा गतिः।
ऊर्ध्वमेव स्वभावेन भवति क्षीणकर्मणाम्॥34॥ अर्थ-जीवों की कर्मजन्य गति तीनों प्रकार से हो सकती है, अधोगति भी हो सकती है और तिर्यक् तथा ऊर्ध्वगति भी हो सकती है, परन्तु जो कर्मों का नाश कर चुके हैं उन जीवों की ऊर्ध्वगति ही होती है और वह स्वाभाविक है।
द्रव्यस्य कर्मणो यद् वद् उत्पत्त्यारम्भवीतयः। समं तथैव सिद्धस्य गतिर्मोक्षे भवक्षयात्॥35॥
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