Book Title: Tattvartha Sara
Author(s): Amitsagar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 373
________________ आठवाँ अधिकार : 315 है। जिस प्रकार नाव में जल आकर भर जाता है तो वह डूब जाती है उसी प्रकार आत्मा में जब तक कर्मास्रव होता रहता है तब तक संसार में डूबता वा स्थान बदलता रहता है और जब मुक्त अवस्था में वह कर्मास्रव से रहित हो जाता है तो स्थानान्तरित नहीं होता । यदि स्थानत्व को ही स्थानान्तरित होने में कारण माना जाएगा तो ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है जो स्थानवाला न हो, क्योंकि, जितने भी पदार्थ हैं वे कहीं न कहीं अवश्य रहते हैं, इसीलिए वे हैं तो पदार्थ ही स्थानान्तरित होते रहने चाहिए, पर ऐसा काल आदि द्रव्यों को देखने से मिथ्या ठहरता है । अत: यह बात सिद्ध हुई कि मुक्त आत्मा कर्मास्रव से सर्वथा रहित है, इसलिए अपने स्थान से विचलित नहीं होता । मुक्तजीव का पतन (अधोगमन) नहीं होता तथापिगौरवाभावान्न पातोऽस्य प्रसज्यते । वृन्तसम्बन्ध विच्छेदे पतत्याम्रफलं गुरु ॥12 ॥ अर्थ-स्थानवान् होने पर भी गुरुत्व का अभाव होने के कारण मुक्त जीव के पतन का प्रसंग नहीं आता। जैसे डंठल के सम्बन्ध का विच्छेद होने पर गुरु (वजनदार) आम का फल नीचे गिरता है। गुरुत्व गुण का होना, न होना ही किसी चीज के नीचे गिरने, न गिरने का कारण होता है । अथवा गुरुत्व गुण दो प्रकार से कहा जा सकता है : अधोगुरुत्व और ऊर्ध्वगुरुत्व । पुद्गल में अधोगुरुत्व गुण होने से वह नीचे की तरफ जाता है। आत्मा में ऊर्ध्व गुरुत्व गुण है, इसलिए कर्मबन्धन छूटते ही आत्मा ऊपर की तरफ जाता I जीवात्मा मनुष्य पर्याय से ही सिद्ध होते हैं। मनुष्यों का रहना अढाई द्वीप के ही भीतर है, इसलिए संसार में जो कोई जीव मुक्त होता है वह अढाई द्वीप के भीतर से ही होगा । मुक्त होने पर वह ऊर्ध्वगमन करता है. - यह बात आगे कहनेवाले हैं। इस अढ़ाई द्वीप में से जो मुक्तों का गमन होता है उमसें मोड़े नहीं होते, किन्तु सीधा होता है, इसलिए यहाँ के अन्तपर्यन्त गमन करने में उन्हें एक ही समय लगता है यह बात कह चुके हैं। जिस प्रकार यहाँ से उनके निकलने का क्षेत्र अढ़ाई द्वीप मात्र है, उसी प्रकार ऊपर पहुँचकर जहाँ ठहरते हैं वह तो अढ़ाई द्वीप 'बराबर ही चौड़ा और लम्बा है। क्योंकि, जो मोड़ा न लेकर सीधे जाएँगे, निकलने के स्थान से अधिक लम्बे चौड़े स्थान में पसर नहीं सकते हैं। स्थान उतना होकर भी मुक्तात्माओं की संख्या अब तक अनन्तों हो चुकी है। अनन्त आत्माओं के थोड़े से क्षेत्र में रहने की युक्ति Jain Educationa International अल्पक्षेत्रे तु सिद्धानामनन्तानां प्रसज्यते । परस्परोपरोधोऽपि नावगाहनशक्तितः ॥ 13 ॥ अर्थ- चरमशरीरी जीव की अवगाहना छोटी से छोटी साढ़े तीन हाथ की होती है। बड़ी से बड़ी सवा पाँच सौ धनुष ऊँची होती है। मुक्त होने पर जीव चाहे छोटी अवगाहनावाला हो और चाहे बड़ी अवगाहनावाला, प्रत्येक अवगाहन के भीतर आकाश के असंख्यात प्रदेश आ जाते हैं । सिद्ध स्थान अढाई द्वीप समान होने से उस स्थान के भीतर यदि अनन्तानन्त सिद्ध रहें तो बहुत ही थोड़े स्थान में आ सकेंगे, For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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