Book Title: Tattvartha Sara
Author(s): Amitsagar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 372
________________ 314 :: तत्त्वार्थसार की भावना तथा नित्य शुचिपने की भावना करना बन्ध का कारण होता है। ऐसी मिथ्याभावना कराने के कारणभूत ज्ञान-दर्शन को मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन कहते हैं। जग की चराचर वस्तुओं को जानना, देखना मिथ्याभाव छूट जाने पर भी होता है, क्योंकि, ज्ञान-दर्शन जीव के स्वाभाविक धर्म हैं, असाधारण लक्षणधर्म हैं। स्वाभाविक, असाधारण लक्षणधर्म का किसी वस्तु में भी नाश नहीं होता है। यदि स्वाभाविक असाधारण लक्षणधर्मों का नाश हो जाए तो वस्तु का ही नाश हो जाए, इसलिए जानना, देखना मिथ्यावासनाओं के अभाव में भी होना चाहिए। बन्ध के कार्यकारणभाव का अभाव मिथ्यावासनाओं के अभाव के साथ ही हो जाता है। कर्मागमन के कारणों का अभाव हो जाने से फिर देखते-जानते हुए भी आत्मा कर्मों से बद्ध नहीं हो पाता। देखने-जानने और रागद्वेष होने के कारण जुदे-जुदे हैं, इसलिए मिथ्यावासना के होते हुए रागद्वेष व कर्मबन्ध उत्तरोत्तर होते रहते हैं। स्वभाव बन्ध के कारण नहीं होते हैं, इसलिए देखने-जानने का कार्य जारी रहते हुए भी मिथ्यावासनाओं का अभाव हो जाने पर बन्ध नहीं होता। स्वाभाविक भाव कभी नष्ट नहीं हो सकते हैं, इसलिए मुक्त अवस्था में भी ज्ञान-दर्शन रहने ही चाहिए। कहीं-कहीं पर योगी जगत् के ऊपर करुणा उत्पन्न होने के कारण भी जगत् को देखते हैं, जानते हैं और उपदेश भी देते हैं, परन्तु आसक्ति उत्पन्न न होने के कारण कर्मों से बद्ध नहीं होते, इसलिए किसी-किसी विद्वान् ने करुणा को भी जीव का स्वभाव सिद्ध किया है। भगवज्जिनसेन स्वामी परमात्मा की स्तुति' करते हुए परमात्मा को जगत् पर करुणा करनेवाला कहते हैं। भावार्थ इतना ही है कि करुणा होने से भी यदि रागद्वेष न हों तो बन्ध नहीं होता। बन्ध स्वाभाविक धर्म नहीं है अकस्माच्च न बन्धः स्यादनिर्मोक्षप्रसंगतः। बन्धोपपत्तिस्तत्र स्यान् मुक्तिप्राप्तेरनन्तरम्॥10॥ __ अर्थ-अकस्मात्-बिना कारण मुक्त जीव के बन्ध नहीं होता, क्योंकि बिना कारण के भी बन्ध होता है ऐसा मानने पर कभी मुक्त होने का प्रसंग ही नहीं आयेगा। मुक्ति प्राप्ति के बाद भी उनके बन्ध हो जायेगा। मुक्त जीव पुनः संसार में न आने का कारण पातोऽपि स्थानबन्धत्वात् तस्य नास्त्रवतत्त्वतः। आस्त्रवाद् यानपात्रस्य प्रपातोऽधो ध्रुवं भवेत्॥1॥ अर्थ-यदि यहाँ यह कहा जाए कि आत्मा मुक्त होने पर स्थानवाला होता है और जो स्थानवाला होता है वह अवश्य ही किसी एक स्थान में स्थिर न रहकर गिरता, पड़ता वा विचलित होता रहता है, इसलिए आत्मा भी ऊर्ध्वलोक में स्थिर न रहकर नीचे गिरना व स्थान से स्थानान्तरित होना चाहिए? इसका यह उत्तर है कि-पदार्थों के स्थानान्तरित होने में स्थानत्व कोई कारण नहीं है, किन्तु आस्रवत्व कारण 1. 'जगत्कारुण्यको' ऐसी स्तुति है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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