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आठवाँ अधिकार :: 313
ज्ञान-दर्शन-सुख सत्तामय है। विकारी दशा का स्वरूप रागद्वेषादि भाव और शरीर हैं। कर्म विकार का कारण है, इसलिए कर्म के नष्ट होते ही रागद्वेषादि भाव और शरीर नहीं रहते हैं। रागद्वेषादि तथा शरीरादि नष्ट हो जाने पर भी ज्ञान-दर्शन स्वाभाविक होने के कारण बने रहते हैं। जैसे आर्टेन्धन संयोग होने से धुआँ होता है और थोड़ा-सा धुंधला प्रकाश भी होता है, परन्तु आर्टेन्धन हट जाने पर तो वह पूरा और शुद्ध होता ही है, धुआँ होना भी बन्द हो जाता है। इसलिए आर्टेन्धन संयोग धुआँमात्र का कारण माना जाता है। उसे उपाधि भी इसलिए कहते हैं कि वह स्वाभाविक स्वयं भी नहीं होता और स्वाभाविकपना कार्य में भी नहीं रहने देता। इसी प्रकार कर्म उपाधि है। उपाधि के हटने से वस्तु का स्वाभाविकपना नष्ट नहीं होता, किन्तु शुद्ध और पूर्ण रूप से प्रकट हो जाता है। कर्मोपाधि के हटने से रागद्वेषादि तथा शरीर उत्पन्न होना बन्द हो जाता है, न कि जीव की स्वाभाविक दशा। इस प्रकार मोक्षावस्था का स्वरूप शून्यरूप न होकर इसके उलटे अधिक जाज्वल्यमान दशा है।
आत्मबन्धन-सिद्धि का दृष्टान्त
अव्यवस्था न बन्धस्य गवादीनामिवात्मनः। अर्थ-यदि कोई आक्षेप करे कि आत्मा का बन्धन सिद्ध नहीं होता तो उसके लिए यह उत्तर है कि बन्धन के बिना परतन्त्रता नहीं होती है। जैसे गाय, भैंस आदि पशु जब तक बन्धन में नहीं पड़ते तब तक वे परतन्त्र नहीं होते। बन्धन में पड़ने पर वे परतन्त्र होते हैं-जहाँ के तहाँ खड़े रहते हैं। इसी प्रकार आत्मा भी शरीर के परतन्त्र होने से बन्धनबद्ध होना चाहिए, इसलिए आत्मा का बन्धन मानना असिद्ध अथवा अयुक्त नहीं है। शरीर में आत्मा का रहना परतन्त्रता का सूचक है। परतन्त्रता उसे कहते हैं जो कि अनिष्ट होने पर भी करना पड़े। दुःख के कारणभूत शरीर में रुके रहना जीव के लिए अनिष्ट है तो भी उसे शरीर में रुकना पड़ता है, इसलिए शरीर में रुककर रहना आत्मा की परतन्त्रता है। जो दुःख का कारण होता है उसे अनिष्ट कहते हैं । शरीर दुःखों का कारण है, इसलिए अनिष्ट है जैसे कारागृह दुःख का कारण होने से अनिष्ट माना जाता है। उसमें परतन्त्रता के बिना कौन रुककर रहेगा। शरीर भी विविध बाधाओं का कारण होने से दःख का कारण माना गया है. इसलिए उसमें वह ही रुका रहेगा रहेगा जो परतन्त्र हो। इस प्रकार संसारी आत्मा का बन्धन होना मानना पड़ता है। मुक्त होने पर भी बन्ध होने की आशंका का परिहार
कार्य-कारण-विच्छेदाद् मिथ्यात्वादि-परिक्षये॥8॥ जानतः पश्यतश्चोर्ध्वं जगत् कारुण्य-योगतः।
तस्य बन्ध-प्रसंगो न सर्वास्त्रव-परिक्षयात्॥9॥ अर्थ-मिथ्यादर्शनादि भावों का अभाव होने से जो कर्म का कार्य-कारण सम्बन्ध था वह भी छूट जाता है। जानना, देखना कर्मबन्धन का कारण नहीं होता, किन्तु उन पर अनित्य वस्तुओं में से रागद्वेषरूप आत्मीयपने
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