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316 :: तत्त्वार्थसार परन्तु सिद्धात्माओं की आज तक संख्या अनन्त हैं। जो जिस सीध में आता है वह वहाँ पर रह जाता है। इस प्रकार आज पर्यन्त एक-एक स्थान में अनन्तों-अनन्तों सिद्ध एकत्रित हो चुके हैं। थोड़े से क्षेत्र में अधिक आत्माओं का आ जाना युक्तिबाधित इसलिए नहीं होता कि आकाश में चाहे जिसको अवकाश देने की शक्ति सदा विद्यमान रहती है। जहाँ पर एक चीज समा जाने पर दूसरी चीज प्रवेश नहीं कर सकती है वहाँ पर भी आकाश के अवकाशदानरूप सामर्थ्य में कोई हीनता नहीं होती। आकाश की अवकाशदान शक्ति सदा ही अव्याहत बनी रहती है और परस्पर में जो चीजें एक दूसरे को रोकती हैं वे स्थूल हों तभी रोकती हैं, नहीं तो नहीं।
अनन्त आत्माओं के समाने का दृष्टान्त
नानादीपप्रकाशेषु मूर्तिमत्स्वपि दृश्यते।
न विरोधः प्रदेशेऽल्पे हन्तामूर्तेषु किं पुनः॥14॥ अर्थ-मूर्तिमान् पदार्थ भी ऐसे बहुत से हैं जो कि थोड़े से आकाश में बहुत से समा जाते हैं। इसका दृष्टान्त दीप का प्रकाश है। जितने आकाश-क्षेत्र में एक दीप का प्रकाश पसर कर रह जाता है उतने ही क्षेत्र के भीतर दूसरे तीसरे आदि दीपकों के प्रकाश भी समा जाते हैं। आत्मा अमूर्तिक द्रव्य है, इसलिए एक-एक क्षेत्र में अनन्तानन्त आत्मा रह सकते हैं और रहते हैं। अमूर्तिक आत्मा के निराकार होने पर भी सद्भाव सिद्ध
आकाराभावतोऽभावो न च तस्य प्रसज्यते।
अनन्तरपरित्यक्त-शरीराकारधारिणः ॥ 15॥ अर्थ-जीवात्मा अमूर्तिक अवश्य है, परन्तु जो अमूर्तिक होता है उसका भी आकार अवश्य होता है। जिस शरीर को छोड़कर जीव मुक्त होता है उसी शरीर के बराबर उसका मुक्तावस्था में आकार रहता है, इसलिए जब कि जीवात्मा का आकार है तो अभाव कैसे कहा जा सकता है?
आत्मा की शरीराकृति
शरीरानुविधायित्वे तत्तद्भावादवसर्पणम्।
लोकाकाशप्रमाणस्य तावन्नाकारणत्वतः॥16॥ अर्थ-जब यह जीव इन कर्मबन्धनों से और सम्बन्ध से छूटकर मुक्त होता है तब जिस अन्तिम शरीर को छोड़कर यह जुदा होता है उसी शरीर के आकार को रखता है। फिर उस आकार में कभी बदलाव नहीं होता। बन्धवश जो बदलाव होता आया उस बदलाव को अब कौन करे? निष्कारण कोई भी कार्य नहीं हो सकता हैं। संकोच या विस्तार पराधीनतावश होता था और इसलिए वह संकोच-विस्तार का होना विकार रूप कार्य था। विकार के हटते ही वह कार्य होना भी बन्द पड़ जाता है।
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