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306 :: तत्त्वार्थसार
निर्जरा का वृद्धिक्रम —
सम्यग्दर्शनसम्पन्नः संयतासंयतस्ततः । संयतस्तु ततोऽनन्तानुबन्धि- प्रवियोजकः ॥ 55 ॥ दृग्मोहक्षपकस्तस्मात् तथोपशमकस्ततः। उपशान्तकषायोऽतः ततस्तु क्षपको मतः ॥ 56 ॥ ततः क्षीणकषायस्तु घातिमुक्तस्ततो जिन: । दशैते क्रमतः सन्त्यसंख्ययेय गुणनिर्जराः ॥ 57 ॥
अर्थ- 1. सम्यग्दर्शन युक्त चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीव, 2. संयतासंयत, 3. संयत छठे गुणस्थान वाला, 4. चौथे से सातवें गुणस्थानपर्यन्त कहीं पर भी अनन्तानुबन्धी कर्म का विसंयोजन करनेवाला जीव 5. दर्शनमोह का क्षय करनेवाला, चौथे से सातवें गुणस्थानपर्यन्त का जीव, 6. उपशम श्रेणी चढ़नेवाला जीव, 7. उपशान्तमोह ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती जीव, 8. क्षपक श्रेणी चढ़नेवाला जीव, 9. क्षीणमोह बारहवें गुणस्थान वाला जीव, 10. घातिकर्मों से मुक्त हुए केवली भगवान। इन दशस्थानों में उत्तरोत्तर असंख्यातअसंख्यात गुणित निर्जरा होती है । अर्थात्, विद्यमान कर्मों के अंश प्रत्येक स्थान में क्रम से असंख्यात - असंख्यात गुणे अधिक - अधिक नष्ट होते जाते हैं ।
निर्ग्रन्थ साधुओं के भेद
पुलाको वकुशो द्वेधा कुशीलो द्विविधस्तथा । निर्ग्रन्थः स्नातकश्चैव निर्ग्रन्थाः पञ्च कीर्तिताः ॥ 58 ॥
अर्थ - (1) पुलाक मुनि (2) दो प्रकार के वकुश मुनि (3) दो प्रकार में विभक्त कुशील मुनि (4) निर्ग्रन्थ तथा (5) स्नातक निर्ग्रन्थ-साधुओं के ये पाँच भेद हैं।
(1) जिनके उत्तर गुण तो नहीं ही हैं, किन्तु व्रत भी परिपूर्ण न हों उन्हें पुलाक कहते हैं । उत्तर गुणों की तरफ तो परिणाम ही नहीं हो पाता, किन्तु व्रतों में जो परिपूर्णता' नहीं हो पाती वह किसीकिसी समय में व किसी-किसी क्षेत्र में समझनी चाहिए। सदा ही उनके व्रत अपरिपूर्ण रहते हों यह बात नहीं है। धान के ऊपर के तुष को पुलाक कहते हैं। उसके लगे रहने से जैसे चावल का स्वरूप प्रकट नहीं होता, उसी प्रकार साधु के चारित्रमोह की ऐसी कोई मलिनता बनी रहती है कि उसके परिणाम वीतरागता की तरफ पूर्णत: नहीं झुक पाते ।
(2) व्रतों को तो जो कभी और किसी क्षेत्र में भी नहीं बिगड़ने देते हैं, परन्तु शरीर के संस्कार में, ऋद्धि प्राप्त होने की अभिलाषा में, सुख की इच्छा में, यश व विभूति बढ़ाने में मन आसक्त बना रहता है, उन्हें वकुश' कहते हैं । वकुश - शब्द का शवल अर्थ होता है । जो शरीर के संस्कारों में लगे रहते हैं उन्हें शरीर-वकुश कहते हैं । उपकरणों में आशक्ति रखनेवालों को उपकरण - वकुश कहते हैं । वकुशों के इस तरह दो भेद हो जाते हैं।
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1. उत्तरगुणभावनापेतमनसो व्रतेष्वपि क्वचित्कदाचित्परिपूर्णतामप्राप्नुवन्तोऽविशुद्धपुलाकसादृश्यात् पुलाकव्यपदेशमर्हति । रा.वा., 9/46,
वा. 11
2. अखण्डिव्रताः शरीरसंस्कारर्द्धिसुखयशोविभूतिप्रवणा वकुशाः । शबलपर्यायवाची वकुशशब्दः । रा.वा., 9/46, वा. 21
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