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308 :: तत्त्वार्थसार भेद सिद्ध हो जाता है। पुलाक आदि जो पाँच भेद किये हैं वे तो हैं ही, किन्तु उन्हीं के इन आठ निमित्तों द्वारा उत्तर अनेक भेद हो जाते हैं।
(1) संयम की अपेक्षा पुलाकादि को देखें तो किसी में कोई संयम रहता है, किसी में कोई। सभी साधुओं में एक ही तरह का कोई संयम नहीं रहता है। सामायिकादि पाँच चारित्रों को संयम कहते हैं। उन पाँचों में से पहले दो सामायिक व छेदोपस्थापन संयम पुलाक में मिलेंगे, बकुश में मिलेंगे और प्रतिसेवना कशील में मिलेंगे। कषायकशीलों में यथाख्यात छोडकर चारों ही संयम मिल सकते हैं। स्नातक व निर्ग्रन्थ, एक यथाख्यात संयम के ही धारी होते हैं।
(2) पुलाक, बकुश, प्रतिसेवना कुशीलों में यदि श्रुतज्ञान उत्कृष्ट हो तो अभिन्नाक्षर दशपूर्वपर्यन्त हो सकता है। कषायकुशील व निर्ग्रन्थ उत्कृष्टता से चौदह पूर्व तक अर्थात् द्वादशांग के पूरे धारी हो सकते हैं। जघन्यता से पुलाक को आचारवस्तु प्रमाण ज्ञान होता है। आचारवस्तु प्रमाण का अर्थ हैजो गुरु ने कहा उतना स्वीकार कर लो, उतने ज्ञान मात्र से आत्मा का हित हो जाता है। जैसे, शिवभूति मुनि को 'तुषमास भिन्नं" इतने मात्र से ही केवलज्ञान हो गया। बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थों को जघन्य श्रुतज्ञान हो तो तीन गुप्ति व पाँच समिति-इन आठ प्रवचन माताओं का ज्ञानमात्र होता है। स्नातकों में श्रुतज्ञान की कल्पना ही छूट जाती है, क्योंकि वे केवलज्ञानी होते हैं।
(3) लेश्या-पुलाक में तो आगे की तीन रहती हैं। बकश में और प्रतिसेवना कशील में छहों लेश्या हो सकती हैं। कषायकुशील यदि परिहारशुद्धिवाला हो तो अन्त की चार लेश्या सम्भवती हैं। यदि सूक्ष्मसाम्परायवाला कषायकुशील हो तो एक-शुक्ल लेश्या-ही रहती है। निर्ग्रन्थ तथा स्नातक शुक्ललेश्या वाले ही होते हैं। अयोगी स्नातकों में एक भी लेश्या नहीं रहती है।
(4) चौथा साधन लिंग है। लिंग दो प्रकार से कहा जा सकता है। एक द्रव्यलिंग, दूसरा भावलिंग। भावलिंग से तो पाँचों प्रकार के साधु निर्ग्रन्थलिंगी ही होते हैं । द्रव्यलिंग की अपेक्षा परस्पर में भेद रहता है।
(5) प्रतिसेवना का अर्थ कषाय के अधीन होकर मूलोत्तर गुणों में विराधना करते रहना है। पुलाक साधु पाँच मूलगुण और छठा रात्रिभोजनत्याग-इन छहों में से एकाध व्रत में कभी-कभी पराधीन होकर दोष लगा लेता है। वकुश दो प्रकार का होता है : 1. उपकरण वकुश, 2. शरीर वकुश। उपकरणों में जिसका चित्त आसक्त रहता हो, बहुमूल्यादि विशेषतायुक्त उपकरणों की इच्छा रखनेवाला हो या उपकरणों के संस्कार करने में लगा रहता हो वह उपकरण-वकुश कहलाता है। जो शरीर को संस्कार-युक्त बनाता रहे वह शरीर-वकुश है। इन दोनों से कषाय के कार्य होते हैं, जिससे कि गुणों में विराधना होती है। प्रतिसेवना कुशील मूलगुणों को सँभालता है, परन्तु उत्तरगुणों में से किसी-किसी गुण को विराधता रहता है, इसलिए प्रतिसेवना कुशील को भी प्रतिसेवना प्राप्त हो जाती है। कषाय कुशील तथा निर्ग्रन्थ, स्नातक प्रतिसेवना नहीं करते हैं।
(6) जिस-जिस तीर्थंकर के काल में जो-जो मुनि होते हैं वे-वे उस तीर्थवाले कहलाते हैं। (7) स्थान का अर्थ कषायस्थान है। कषायों के निमित्त से जो संयम भेद होते हैं वे भी स्थान
1. भाव पा.गा. 53|
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