Book Title: Tattvartha Sara
Author(s): Amitsagar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 365
________________ सातवाँ अधिकार :: 307 (3) शीलों में कुछ मलिनता रखनेवाले साधु को कुशील कहते हैं। उसके प्रतिसेवना कुशील' व 'कषाय कुशील' ऐसे दो भेद' हैं। मूलगुण तथा उत्तरगुण ये दोनों गुण तो जिसके परिपूर्ण ही रहते हों, परन्तु कदाचित् कथंचित् उत्तरगुणों में विराधना कर लेता उसे प्रतिसेवना कुशील कहते हैं। उदाहरणार्थ, स्नानत्यागी होकर भी वह साधु ग्रीष्म ऋतु में कभी-कभी जाँघपर्यन्त जल से प्रक्षालन कर डालता है। कषाय कुशील उसे कहते हैं जो कि अन्य कषायों को वश कर चुका हो, परन्तु संज्वलन कषाय के वशीभूत बना हुआ हो। श्रेणी चढ़ जाने पर जो दशवें गुणस्थान तक साधु रहते हैं वे कषाय कुशील माने जाते हैं। (4) जल की रेखा जिस प्रकार जल्दी ही विलय को प्राप्त हो जाती है उसी प्रकार जिन साधुओं को क्षणभर बाद ही केवलज्ञान होनेवाला है, जिनके घातिकर्म नाश के सन्मुख हैं उन्हें निर्ग्रन्थ कहते हैं। ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती साधु की दशा वर्तमान में कषाय के उदय से रहित होती है, इसलिए उसे भी निर्ग्रन्थ कहते हैं। इस प्रकार दशवें गुणस्थान के बाद निर्ग्रन्थ संज्ञा प्राप्त हो जाती है। क्योंकि, बाह्य परिग्रह पहले से ही छूट जाता है। रहा अन्तरंग ग्रन्थ क्रोधादि, वह दशवें के ऊपर छूट जाता है। इसलिए अन्तरंग परिग्रह के छूटते ही निर्ग्रन्थ-यह विशेषण साक्षात् मानने में आने लगता है। यों तो पाँचों प्रकार के साधुओं को ग्रन्थकार ने निर्ग्रन्थ ही कहा है। परन्तु पूर्व के तीनों निर्ग्रन्थ, बाह्य ग्रन्थ के अभाव की मुख्यता से ही निर्ग्रन्थ कहलाते हैं। (5) केवलज्ञान प्राप्त हो जाने पर स्नातक नाम प्राप्त हो जाता है। ज्ञान की पूर्णता हो जाने की अपेक्षा से स्नातक-शब्द का प्रयोग होता है। स्नातक का शब्दार्थ भी ऐसा ही है। इन पाँच प्रकार के साधुओं में यद्यपि अन्तरंग विशुद्धि का अन्तर रहता है, परन्तु ये सभी निर्ग्रन्थ गुरु पद के धारी होते हैं। जैसे, चारित्र, अध्ययन आदि क्रियाओं का भेद होने से ब्राह्मणों में अन्तर्भेद होते हैं, परन्तु सभी को ब्राह्मण तो कहा ही जाता है। उसी प्रकार इन पाँचों प्रकार के साधुओं में निर्ग्रन्थशब्द का प्रयोग हो सकता है। अथवा सम्यग्दर्शन और निर्ग्रन्थ का वेश सभी में एक-सा पाया जाता है इसलिए वे सभी निर्ग्रन्थ कहलाते हैं। साधुओं के परस्पर भेद का दूसरा हेतु संयम-श्रुत-लेश्याभिर्लिङ्गेन प्रतिसेवया। तीर्थस्थानोपपादैश्च विकल्प्यास्ते यथागमम् ॥59॥ ___अर्थ-(1) संयमभेद, (2) श्रुतभेद, (3) लेश्यादि, (4) लिङ्गभेद, (5) प्रतिसेवना भेद, (6) तीर्थभेद, (7) स्थान भेद, (8) उपपादभेद—ये आठ और भी ऐसे निमित्त हैं जिनसे कि साधुओं में परस्पर 1. कुशीला द्विविधा प्रतिसेवनाकषायोदयभेदात्। रा.वा., 9/46 वा. 3 2. स्नातको वेदसमाप्तौ इति साधिनं । 3. ब्राह्यणशब्दवत्। 4. दृष्टिरूपसामान्यात्। भग्नव्रतेवृत्तावतिप्रसंग इति चेन्न, रूपाभावात्। अन्यस्मिन् स्वरूपेऽतिप्रसंग अति चेन्न, दृष्ट्यभावात्। रा.वा., 9/46, वा. 9, 10, 11 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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